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________________ विदिअाप्पाबहुगपरूवणा पंचंत० सव्वत्थावा उक्क हिदि० । यटिदि. विस । सेसाणं ओघं । एवं सव्वणिरयाणं। गवरि सत्तमाए सव्वत्थोवा मणु सग०-मणुसाणु-उज्जो० उक्त हिदि० । यट्टिदि. विसे । तिरिक्वगदि--तिरिक्रवाणु :--णीचा० उक्क संखेज्ज । यहिदि० विसे० । ५६७. तिरिक्वेसु अोघं । णवरि सव्वत्थोवा तिरिक्ख--मणुसायु, उक्कल हिदि । यहिदि. विसे । देवायु० उक्त हिदि० संखेज्ज० । यहिदि विस० । णिरयायुः उक.हिदि. विरो० । यहिदि० विसे० । सव्वत्थोवा देवगदि० उक० हिदि० । यहिदि० विसे० । मणुसगदि० उक्क हिदि विसे | तिरिक्वगदि० उक० हिदि० विस० । यहिदि० विस० । णिरयगदि. उक्क.हिदि. विसे । यहिदि. विसे । ५६८. सव्वत्थोवा चदुपएणं जादीणं उक० हिदि० । यहिदि विसे। पंचिंदि० उक्क हिदि. विसे० । यहिदि. विसे । सव्वत्थोवा ओरालिय० उक०हिदि० । यट्टिदि० विसे० । तिएिण सरीराणं उक्क हिदि विसे० । यहिदि० विसे । ५६६. संठाणं ओघं । सबथोवा ओरालि अंगो० उक्क हिदि० । यहिदि. अगुरुलघु चतुष्क, उद्योत, त्रस चतुष्क, निर्माण, तीर्थकर और पाँच अन्तराय इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओधके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथ्वीमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उद्योतका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ५९७. तिर्यञ्चोंमें शोधके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । देवागतिका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नरकगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। ५९८. चार जातियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। औदारिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तीन शरीरोंका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ५९९. संस्थानोंका भङ्ग ओघके समान है। औदारिक आङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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