SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्विदिअप्पाबहुगपरूवणा २७७ ६०१. सव्वत्थोवा मणुसग उक्क हिदि० । यहिदि० विसे । तिरिक्वग० उक्क हिदि० विसे । यहिदि विसे । एवं आणुपु० । सव्वत्थोवा पंचिंदि० उक० हिदि । यहिदि विसे० । चदुरिं० उक्क हिदि विस० । यहिदि० विसे । तीइंदि० उक्क छिदि. विसे । यहिदि० विसे। बोइंदि० उक्क०हिदि० विसे । यहिदि विसे । एइंदि० उक्क.हि. विसे० । यहि विसे । ६०२. सव्वत्थोवा तस०४ उक्क द्विदि० । यहि विसे । तप्पडिपक्रवाणं उ.हि. विसे । यहि विसे० । सेसाणं णिरयभंगो । ६०३. मणुसेसु णिरयभंगो । णवरि आयु० अोघं । सव्वत्थोवा आहार० उ० हि० । यहि विसे० । ओरालि० उ०हि० संखेज । यहि विसे० । वेउवि०तेजा०-क० उ.हि. विसे । यहि विसे० । सव्वत्थोवा आहार०अंगो० उ०हि । यहि विसे० । ओरालि अंगो० उ०हि० संखेन्ज । यहि विसे । वेउवि० अंगो० उ० हि० विसे । यहि विसे० । मणुसअपजत्त० पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। ६०१. मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार आनुपूर्वियोंकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चतुरिन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे त्रीन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे द्वीन्द्रियजातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे एकेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । ६०२. त्रसचतुष्कका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे इनको प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। ६०३. मनुष्यों में नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि आयुओका भङ्ग ओघके समान है। आहारकद्विकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे औदारिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यतागुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष त्रधिक है। इससे वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर और कार्मण शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। आहारक आङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे औदारिक आङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मनुष्य अपर्याप्तकोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy