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________________ २४४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अणु० सव्वद्धा । एवं पोषभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालि०-णवुस०-कोधादि०४-मदि-सुद०-असंज०-अवक्खुदं०-तिण्णिले०-भवसिद्धि-अब्भवसिद्धि-मिच्छादि०-असरिण-पाहारग ति। ५२३. णिरयेसु तिरिक्खायु० उक्क० जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखें । अणु० जह० अंतो०, उक० पलिदो० असंखेज० । मणुसायु० उक० जह० एग०, उक्क० संखेजसम० । अणु० जहण्णु० अंतो० । सेसाणं उक्क० जह० एग,. उक्क० पलिदो० असंखेज० । अणु० सव्वद्धा । एवं सव्वणिरयाणं सव्वदेवाणं च । णवरि सत्तमाए मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे । अणु० सबद्धा। ५२४. पंचिंदियतिरिक्खतिण्णि तिरिक्खायु० उक्क० श्रोघं । अणु० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखेज । सेसोणं ओघ । पंचिंदियतिरिक्खअपजसगेसु तिरिक्खायु० पिरयभंगो । सेसं ओघं । एवं सबअपजताणं तसाणं सव्वविगलिंदियाणं बादरपुढवि०आउ०-तेउ०-वाउ.-बादरवणफदिपत्त यपजत्ताणं च । णवरि मणुसअपजत्नगे आयुगवजाणं सवपगदीणं उक्क० अणु जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखेन । क्रोधादिचार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ५२३ नारकी जीवोंमें तिर्यश्चायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है । इसी प्रकार सब नारकी और सब देवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है की सातवीं पृथ्वीमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। ५२४. पञ्चेन्द्रितिर्यश्चत्रिकमें तियश्चायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें तिर्यञ्चायुका भङ्ग नारकियोंके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त, त्रस, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथ्वीकायिक, पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकों में आयुओंको छोड़कर सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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