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________________ २४० महाबंधे हिदिबंधाहियारे सत्थ०-भग-दुस्सर-प्रणादे जह० अट्ठ-बारह । अज० अणुकस्सभंगो । दोश्रायुमणुसग०-मणुसाणु०-आदाव-तित्थय०-उच्चागो० जह० अज० अट्टचों । एइंदि०थावर० जह० अज० अट्ठ-णवचौद्द० । सेसाणं जह० अट्टचों । अज० अणुक्कस्सभंगो । वेउव्वियमि०-आहार-आहारमि० खेत्तभंगो । कम्मइग० खेत्तभंगो एवं अणाहार० । ५१६. इस्थि-पुरिसेसु एई दिय-थावर० जह० सत्तचों । अज० अणुकस्सभंगो । सुहुम० जह० अज. लोग० असंखेज० सव्वलो० । इत्थीए तित्थय. जह० अज० खेत्तं । सेसाणं जह० खेत्तं । श्रज. अणुकस्सभंगो। णqसगे कोधादि०४-प्रचक्खुदं०भवसि०-पाहारग त्ति ओघं । णQस०-मणुसायु०-तित्थय० ओरालियकायजोगिर्भगो। णवरि णqसगे तित्थय० खेत्तं । अवगदवेदे खेत्तं । ५१७. विभंगे असादा०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० जह. अट्ठबारहचोदस० । अज० अणुक्कस्सभंगो । इत्थि०-णस०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पस्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । स्त्रीवेद, नपुसंकवद, पांच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग दुःस्वर और अनादेय इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम बारह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है । दोआयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, तीर्थङ्कर और उच्च गोत्र इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदहराजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौददं राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है । कामणकाययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके स इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। ५१६. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात वटे चौदह राजु क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। सूक्ष्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है तथा अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवों का स्पर्शन अनुत्कृष्ट के समान है । नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षु दर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। किन्तु नपुंसकवेद, मनुष्यायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग औदारिक काययोगी जीवों के समान है । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। अपगतवेदमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। ५१७. विभङ्ग ज्ञानी जीवोंमें असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति इनकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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