SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पेगदिसमुदाहारे परत्थाण अप्पाबहुगं ४६३ विसे० । असाद० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । थीणगिद्धि०३ द्विदिवं० विसे । णिद्दापचला० द्विदिवं० विसे० । पंचणाणा०-चदुदंसणा०-पंचंत० द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसा० । अणंताणुबंधि०४ डिदिबंधज्झवसाण. असंखेजगु० । अप्पचक्खाणा०४ द्विदिवं० विसे । पञ्चक्खाणा०४ द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसा० । कोधसंज. द्विदिबं० विसे । माणसंज० द्विदिबं० विसे । मायासंज० द्विदिवं० विसे । लोभसंज० द्विदिबंधज्झ० विसेसा० । मिच्छत्त० टिदिबंधज्झव० असंखेजगु० । एवं ओघं पंचिंदियतस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-पुरिस०-कोधादि०४-चक्खुदं०-अचक्खुदं०भवसि०-सण्णि-आहारग त्ति । णवरि पुरिस० कोधादिसु च मोहणीए विसेसो ओघेण साघेदव्वं । ६६१. णिरएसु सव्वत्थोवाणि दोण्णं आयुगाणं ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि। पुरिस०हस्स-रदि-जसगि०-उच्चा० द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेज्जगु० । सादावे० हिदिवं० असंखेजगु० । इथिवे० द्विदिबं० विसेसा० । मणुसगदि० द्विदिबंधज्झव० विसे० । णवूस० द्विदिबंध० असंखज्जगु०। अरदि-सोग-अजसगित्ति० द्विदिवं० विसेसा० । तिरिक्खगदिणीचागो० द्विदिबंध० विसेसा० । भय-दुगुं०-ओरालिय-तेजा०-कम्मइय० भय और जुगुप्साके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे असातावेदनीयक स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे हैं। इनसे स्त्यानगृद्धि तीनके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे निद्रा और प्रचलाके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे पाँचज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्कके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे हैं। इनसे अप्रत्याख्यानावरण चारके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे प्रत्याख्यानावरण चारके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोध संज्वलनके 'स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे मान संज्वलनके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे माया संज्वलनके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे लोभ संज्वलनके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगणे हैं । इसी प्रकार अोधके समान पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, चक्षुःदर्शनी, अचक्षुःदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदी और क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें मोहनीयकी विशेषता ओघके अनुसार साध लेना चाहिये । ६१. नारकियोंमें दो आयुओंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे पुरुषवेद, हास्य, रति, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे सातावेदनीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे स्त्रीवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे मनुष्यगतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे नपुंसकवेदके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे अरति, शोक और अयशःकीर्तिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे तिर्यञ्चगति और नीचगोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy