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उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा
६४. बीइंदि० उक ६० हिदि०बं० तिरिक्खगदि-ओरालि० - तेजा ० क०- -ओरालि०अंगो०-असंपत्त०-वण्ण०४ - तिरिक्खा ० गु० - उप० - तस - बादर- पत्ते ० - दूभग-- अरणादे०गिमि० शि० बं० संखेज्जगुणहीणं ० । पर०-उस्सा ० -उज्जो ० अप्पसत्थ० - पज्ज०थिराथिर-सुभासुभ- दुस्सर जस० - अजस० सिया० संखेज्जगुणहीणं । अपज्ज० सिया । तं तु । एवं तीइं दि ० चदुरिं० ।
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६५. आदाव उक्क हिदिबं० तिरिक्खगदि ० -ओरालि०-तेजा० क० • - हुड ०वरण ०४ - तिरिक्खाणु० गु०४- बादर- पज्जत्त पत्ते ० दूर्भाग-प्रणादे० - णिमि० रिण० अणु संखेज्जगुणहीणं० । एइंदि० थावर० पिय० । तं तु । थिराथिर-सुभासुभजस-जस० सिया बं० । यदि बं० संखेज्जगुणही ० ।
६६. पर० - अपज्ज० उक्क० द्विदिबं० तिरिक्खग० ओरालि० -तेजा० - क ०. ० - वरण०४- तिरिक्खाणु० गु० - उप० अथिरादिपंच - णिमि० लिय० संखेज्जगुण
- हुड
सं०.
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९४. द्वीन्द्रिय जाति की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, दुभंग, अनादेय और और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यात गुण हीन स्थितिका बन्धक होता है । परघात, उच्लास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, शुभ, दुःखर, यशःकीर्ति और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातगुण हीन स्थितिका बन्धक होता है । पर्याप्तका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
६५' श्रातपकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरु लघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है । एकेन्द्रिय जाति और स्थावर इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थितिका बन्धक होता है ।
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९६. परघात और अपर्याप्त प्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो
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