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________________ टुिदिअप्पावहुगपरूवणा २९१ ६३१. मणपज्जव० सव्वत्थोवा सादा०--जसगि० जहि । यहि० विसे० । असादा०-अजस. ज.हि. असंखेंज० । यहि० विसे । मोहणीयं मणजोगिभंगी। एवं दसणावरणीयं । सेसाणं सव्वत्थोवा जहि । यहि विसे । एवं संजदसामाइ०-छेदो०-परिहार०--संजदासंजदा त्ति । एवरि विसेसो णादव्यो । चक्खुदं०तसपज्जत्तभंगो। ६३२. किरण-णील-काऊणं सव्वत्थोवा दोआयु० ज०हि । यहि विसे० । देवायु० ज० डि. संखेंजगु । यहि० विसे । णिरयायु० ज०हि० असंखेंज। यहि विसे । सेसं अपज्जत्तभंगो । णवरि काऊए णिरय-देवायूणं सह भाणिदव्वं । ६३३. तेऊए मोहणीय-णामं मणजोगिभंगो। णवरि सव्वत्थोवा पुरिस-- हस्स-रदि-भय-दुगु० जहि । यहि विसे । चदुसंज. ज.हि. विसे० । यहि विसे । अरदि-सोग० ज०हि. संखेज.। यहि० विसे । सेसं सोधम्मभंगो । गवरि साद-जस०-उच्चा० सव्वत्थोवा जहि । यहि विसे । असाद०-अजस०णीचा० ज०हि संखेज । यहि विसे । एवं पम्माए। ___ ६३१. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें सातावेदनीय और यशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीय और अयशःकीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका ममनोयोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार दर्शनावरणीयका अल्पबहत्व जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु जहाँ जो विशेषता हो उसे जान लेना चाहिए । चक्षुदर्शनवाले जीवों में त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। ६३२. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवों में दो अायुओंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका जघन्य स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि कापीत लेश्यावाले जीवों में नरकायु और देवायुको एक साथ कहना चाहिए । ६३३. पोतलेश्यावाले जीवों में मोहनीय और नामकर्मका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति और शोकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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