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________________ २२० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे कोधे माणे०३ मायाए दोगिण लोभे ऍक्क० । ६२६. मदि०-सुद०--असंज-अब्भव---मिल्लादि० तिरिक्खोघं । विभंगे सव्वत्थोवा देवग० ज.हि० । यहि विसे । तिरिक्ख-मणुसग० ज हि संखेज । यट्टि विस० । णिरयग० जट्टि संखेंज । यहि विसे० । सव्वत्थोवा पंचिंदि० जहि । यहि. विसे० । चदुरिंदि० ज०हि० संखेंज । यहि विसे । तीइंदि० जाहि. विसे०। यहि विसे० । बीइंदि० जट्टि विसे० । यहि विसे । एइंदि० जट्टि विसे० । यहि विसे० । सव्वत्थोवा वेउवि०-तेजा-क. जाहि०। यहि विसे० । ओरालि० ज०हि० संखेंज । यहि० विसे० । सेसं मणजोगिभंगो। ६३०. श्राभि-सुद०-ओधि० सव्वत्थोवा मणुसायु जहि । यहि विसे । देवायु० ज०ट्ठि० असंखेंज ० । यहि . विसे० । सव्वत्थोवा देवग० ज०हि० । यहि० विसे । मणुसग० जहि संखेंजगु०। यहि विसे० । सेसाणं मणजोगिभंगो । एवं ओधिदंसणी-सम्मादि०-खइग०--वेदग०-उवसम । णवरि वेदगे खवगपगदिभंगो एत्थि। वाले जीवोंमें श्रोधके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मोहनीयकर्ममें विशेषता जाननी चाहिए । क्रोधमें चार संज्वलन, मानमें तीन, मायामें दो और लोभमें एक कहना चाहिए । ६२६. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सामान्य तिर्योके समान भङ्ग है। विभज्ञान में देवगतिका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। पञ्चेन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चतुरिन्द्रि जातिका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे त्रीन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थिति बन्ध विशेष अधिक है । इससे द्वीन्द्रियजातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे एकेन्द्रियजातिका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे औदारिकशरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। ६३०. आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका जघन्य स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। देवगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपसमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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