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________________ ४२२ महाधे द्विदिबंधाहियारे 1 तेत्तीस साग० दे० | सादादिवारस० तिण्णिवड्डि-हाणि अवट्ठिदं जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । पुरिस० समचदु० वज्जरि ० पसत्थ० - सुभगसुस्सर-आदें• तिण्णिवड्डि- हाणि अवट्ठि ० सादभंगो । अवत्तव्वं इत्थिभंगो । दोआयु० दोपदा जह० अंतो०, उक्क० छम्मासं देख० । तित्थय० तिष्णिवड्डि-हाणि० ज० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० बेसमयं । अवत्त ० णत्थि अंतरं । एवं ती पुढवी तित्थक० । णवरि पढमाए अवत्त० णत्थि । छसु उवरिमासु मणुस ० -मणुसाणुपुव्वीणं उच्चा० पुरिसभंगो । सेसाणं अध्पप्पणो अंतरं भाणिदव्वं । सत्तमाए णिरयोघं । ८८४. तिरिक्खेसु धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि० ओघं । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । थीण गिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४ असंखेज्ज ० वड्डि- हाणिअवट्ठि ० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सू० । बेत्रड्डि-हाणि अवत्त० ओघं । सादादिबारस ओघं । इत्थवे० तिण्णिवड्डि- हाणि - अवडि० थीणगिभिंगो । अवत्त • जह० तो ०, उक्क० तिष्णि पलिदो० देसू० । अपचक्खाणा०४ - णवुंस० पंचसंठा नीचगोत्र और उच्चगोत्रकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर इन सबका कुछ कम तेतीस सागर है । साता आदि बारह प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यबन्धका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । दो आयुओंके दो पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है । तीर्थंकर प्रकृतिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । अवक्तव्यबन्धका अन्तर काल नहीं है । इसी प्रकार तीन पृथिवियों में तीर्थंकर प्रकृतिका अन्तर काल है । इतनी विशेषता है कि पहली पृथिवीमें अवक्तव्यपद नहीं है । आगेकी छह पृथिवियोंमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवेदके समान है । शेष प्रकृतियोंका अपना-अपना अन्तर काल कहना चाहिये । सातवीं पृथिवीमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है । ४ तिर्यों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका भङ्ग घ समान है । अवस्थितबन्धको जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । स्त्यानवृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्यबन्धका अन्तर काल के समान है । साता आदि वारह प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के समान है | स्त्रीवेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितबन्धका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अप्रत्याख्यानावरण चार, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, १ मूलप्रतौ जह० पुग० उ० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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