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________________ महाबँधे द्विदिबंधाहियारें ८१३. तसेसु वेउब्वियछ ० - आहारदुगं [ मणुसभंगो। ] आदाव - थावर - सुहुमसाधार० देवगदिभंगो । सेसाणं ओघं । णवरि यम्हि अनंतगुणं तम्हि असंखेज्ज० । एवं पत्त० । णवरि ओरालि० सादभंगो । ८१४. तस अपजत्त० धुविगाणं सव्वत्थो० भुज० । अप्प० विसे० । अवट्ठि० असंखेज्ज० । सादासादा० पंचणोक० - तिरिक्खग०-पंचिंदि० - हुंडसं ०-ओरालि • अंगो०असंपत्त० - तिरिक्खाणु ० -तस० - बादर - पज्जत - पत्ते ०- अथिरादिपंच - णीचा० सव्वत्थो ० अवन्त । अप्पद ० संखेज्ज० । भुज० विसे० । अवट्ठि ० असंखें । मणुसगदि- मणुसाणु ० ओघं । बीइंदि० सव्वत्थो० अवत्त० । भुज० संखेज्ज० । अप्पद ० विसे० । अवट्ठि ० असंखेज्ज० । सेसं तिरिक्खभंगो । - ८१५. पंचमण० - तिण्णिवचि ० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक० -भय-दुगुं०देवगदि-ओरालि० - वेउव्वि ० तेजा ० क ० - वेड व्वि ० अंगो० वण्ण० ४- देवाणु ० अगु० - [ उप०-] बादर - पज्जत - पत्तेय० - णिमि० - तित्थय० - पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त० । भुज० - अप्पद० असंखेन्ज • । अवट्टि • असंखेज्ज० । चदुआयु० - आहारदुगं ओघं । सेसाणं सव्वत्थो ० ० I Q ३८८ ८१३. सोमं वैक्रियिक छह और आहारक द्विकका भङ्ग मनुष्योंके समान है। आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण प्रकृतिका भङ्ग देवगतिके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि जहाँ पर अनन्तगुणा कहा है, वहाँ पर असंख्यातगुणा कहना चाहिये । इसी प्रकार पर्याप्त त्रसोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि औदारिक शरीरका भङ्ग सातावेदनीयके समान है | I = १४. अपर्याप्तकों में ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार पदके बन्धक जीव सबसे स्तीक हैं । इनसे अल्पर पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । सातावेदनीय, असातावेदनीय, पाँच नोकषाय, तिर्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, तिर्यगत्यानुपूर्वी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और नीचगोत्रके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्य गति और मनुष्य त्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघ के समान है । द्वीन्द्रिय जातिके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियों का भङ्ग तिर्यों के समान है। 1 ८१५. पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपांग, वर्णचतुष्क, देवगध्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थंकर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । चार आयु और आहारकद्विकका भंग ओघ के समान है। शेष प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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