SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९५ जहण्णपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा तं तु० । तित्थय० सिया० । तं तु । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० । ४२५. असादा० ज०हि०० हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० सिया० संखेजगु० । एवं तित्थय । अरदि-सोग-अथिर--असुभ-अजस० सिया० । तं तु० । धुविगाणं णि० बं० संखेंजगु० । एवं अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजसः । ४२६. असंजद० तिरिक्खोघं । णवरि तित्थय० ज०हि बं० धुवपगदीओ देवगदिसंजुत्ताओ पसत्थणामपगदीओ यदि वं० संखेजगु० । चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो। अचक्खुदं ओघं। अोधिदं. ओधिणाणिभंगो। किरण-णील-काऊ तिरिक्खोघमंगो । गवरि तित्थय० असंजदस्स० संजदाभिमुहस्स देवगदिसंजुत्तानो पसस्थाओ पि. अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य. एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। ४२५. असाता वेदनीयकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तीर्थकर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजधन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशाकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ४२६. असंयत जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ध्रुव प्रकृतियोंको देवगतिसंयुक्त बाँधता है। तथा नामकर्मकी प्रशस्त प्रकृतियोंको यदि बाँधता है तो संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। अवचुदर्शनवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अवधिदर्शनवाले जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। कृष्ण, नील और कापोत वेश्यावाले जीवों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अभिमुख हुए असंयत जीवके तीर्थंकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy