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________________ २८२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे विसे० । मणुसगदि ० उ० हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । तिरिक्खग० उ०वि० विसे० । यहि० विसे० । एवं तिरि० । एवं पम्माए वि । वरि सहस्सारभंगो । ६१४. सरणी सव्वत्थोवा तिरिक्ख -- मणुसायु० उ०हि० । यहि० विसे० । देवायु० उ०वि० असंखे० । यहि० विसे० | रियायु० उ०वि० असंखे० । [ हि० विसे० । ] सव्वत्थोवा देवगदि० उ०द्वि० । यहि० विसे० । मणुसग० उ० द्वि० विसे० । यहिदि० विसे० । तिरिक्खग० उ०हि० विसे० । यहि० विसे० । गिरयग० उ०हि० विसे० । यहि ० विसे० । सव्वत्थोवा चदुरिंदि० उ०वि० । यद्वि० विसे० । तीइंदि० उ०वि० विसे० । यट्टि० विसे० । बीइंदि० उ० द्वि० विसे० । 1 ० विसे० । एइंदि० उ० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । पंचिदि० उ० हि० विसे० । यहि ० विसे० | गदिभंगो आणुपुव्वि० । थावरादि०४ उ० द्वि० थोवा । यहि० विसे० । तस०४ उ० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । सेसा० अपज्जत्तभंगो । अरणाहार० कम्मइगभंगो | एवं उक्कस्सं समत्तं स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे ममुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार तीन श्रानुपूर्वियोकी मुख्यतासे अल्पबहुत्व जानना चाहिए । इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंके भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके सहस्रार कल्पके समान भङ्ग जानना चाहिए । ६१४. संज्ञी जीवों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। देवगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक हैं। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चतुरिन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे त्रीन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे द्वीन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे एकेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चार आनुपूर्वियोंका भङ्ग चार गतियोंके समान है । स्थावर आदि चारका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स चतुष्कका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान तथा अनाहारक जीवोंका भङ्ग कार्मणकाय योगी जीवोंके समान है । Jain Education International इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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