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________________ २८१ टिदिअप्पाबहुगपरूवरणा सम्मादि०-खइग-वंदग०-उवसम-सासण-सम्मामि० आभिणिबोधि०भंगो । णवरि एदेसि मग्गणाणं अप्पप्पणो पगदीश्रो णादृण अप्पाबहुगं साधेदवारो। ६११. सासणे सव्वत्थोवा तिरिक्ख-मणुसायु० उ०हि० । यहि० विसे । देवावु० उ०ट्टि० संखेज्ज० । यहि विसे० । असंज---अब्भवसि०-मिच्छादि. मदि०भंगो। ६१२. किएणले. सगभंगो० । णील-काऊणं सव्वत्थोवा देवगदि० उ० हि० । यहि विसे । णिरयग० उ०हि. विसे । यहि० विसे । मणुसग० उ० हि० संखेज० । यहि विसे० । तिरिक्खग० उ०हि० विसे । यहि. विसे । सव्वत्थोवा चदुजादि० उ.हि । यहि विसे० । पंचिंदि० उ०हि संखेज्जगुः । [ यहि. विसे० । ] सेसाणं अोघं । ६१३. तेउ० सोधम्मभंगो। णवरि सव्वत्थोवा आहार० उहि । यहि विसे । वेउवि० उ.हि० संखेज्जगुः । यहि. विसे । ओरालिक-तेजा-क० उक्क द्वि० संखेजगु । यढि० विसे । सव्वत्थोवा देवगदि० उ.हि । यहि अधिक है। मनःपर्यपज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धि संयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, सम्यग्दृषि, उपशमसम्यग्दृधि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में आभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओंमें अपनी अपनी प्रकृतियोंको जानकर अल्पवहुत्व साध लेना चाहिए। ६११. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंयतसम्यग्दृष्टि, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। ६१२. कृष्णलेश्यावाले जीवोंमें नपुंसकवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। नील और कापोत लेश्यावाले जीवों में देवगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चार जातियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पञ्चेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। शेष प्रकतियोंका भङ्ग ओघके समान है। ६१३. पीतलेश्यावाले जीवोंमें सौधर्म कल्पके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है। कि आहारक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सवसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे औदारिक शरीर, तैजस शरीर और कार्मण शरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। देवगतिका उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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