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________________ पगदिसमुदाहारे सत्यागअप्पाबहुगं ४६१ याव० उवरिमगेवज्जा पढमपुढवीभंगो। अणुदिस याव सबढेसु सव्वत्थो० हस्स-रदीणं द्विदिवं० । अरदि-सोग० द्विदिवं. असंखेज्जगु० । पुरिस०-भय-दुगुं० विसे० । बारसक० द्विदिबं. असं०गु० । सेसाणं णिरयभंगो। एवं एस भंगो आहार-आहारमि०-आभि० सुद०-ओधि०-मणपज्जव०-सव्वसंजद-ओधिदं०-सम्मादि० खड्ग०-वेदगस०-उवसमस०सासण-सम्मामिच्छा। ६८८. पंचिंदि०-तस०२-पंचमण०-पंचवचि०-पुरिस०-चक्खुदं०-सण्णि त्ति मूलोघं । ओरालियका० मणुसिभंगो। ओरालियमि० तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। णवरि देवगदि०४ अस्थि । वेउवि० देवोघं। एवं चेव वेउन्वियमिस्स० । कम्मइ०-अणाहारगे तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । विसेसो ओघेणेव साधेदव्वं । इत्थिवे० पंचिंदियभंगो । किंचि विसेसो०। णqसगेसु ओघं । जादिणामेसु विसेसो० । अवगदवेदे ओघेण साधेदव्वं । एवं सुहुमसंपरा० । मदि०-सुद०-विभंगणाणि-अब्भवसिद्धिय-मिच्छा० ओघं । णवरि सम्मत्तपगदीसु विसेसो । असंजदे ओघं । आयु० विसेसो । एवं तिण्णिले । णवरि किंचि विसेसो । ६८६. तेऊए मोहणीयो ओघो । सेसाणं सोधम्मभंगो। एवं पम्माए वि । णवरि अधिक हैं । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। सानत्कुमार कल्पसे लेकर उपरिमग्रैवेयक तकके देवोंमें पहली पृथ्वीके समान भङ्ग है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें हास्य और रतिके स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे अरति और शोकके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। इनसे बारह कषायोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इसी प्रकार यह भङ्ग आहारककाययोगी आहा. रकमिश्रकाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, सब संयत, अवधि, दर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्याहृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। ८. पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवों में मूल ओघके समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्यिनियोंके समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तिर्यञ्चअपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें देवगतिचतुष्क है। क्रियिककाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है। इसीप्रकार वक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें तिर्यञ्चअपर्याप्सकोंके समान भङ्ग है। जो विशेष हो उसे ओघसे साध लेना चाहिये । स्त्रीवेदी जीवोंमें पञ्चेन्द्रियके समान भङ्ग है। किन्तु कुछ विशेषता है । नपुंसकवेदी जीवोंमें ओबके समान भङ्ग है। किन्तु जातिनामककर्मकी प्रकृतियोंमें कुछ विशेषता है। अपगतवेदी जीवोंमें ओघके समान साध लेना चाहिये । इसीप्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिये । मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वसम्बन्धी प्रकृतियोंमें विशेषता जाननी चाहिये। असंयतोंमें ओघके समान भङ्ग है। किन्तु चार आयुओं विशेषता जाननी चाहिये । इसीप्रकार तीन लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इनमें कुछ विशेषता है। हह. पीतलेश्यावाले जीवोंमें मोहनीयका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सौधर्मकल्पके समान है। इसीप्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंमें भी जानना चाहिये। इतनी विशेषता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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