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________________ २८४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ज०ट्ठि० । यट्ठि० विसे० । देवग० ज० हि० संखेज्ज० । यहि ० विसे० । रियग० ज० हि० विसे० । यद्वि० विसे० । सव्वत्थोवा पंचिदि० ज० हि० । यद्वि० विसे० । चदुरिं० ज० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । तीइंदि० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । बीइंदि० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । एइंदि० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । ६१७. सव्वत्थोवा ओरालि० तेजा० क० ज० द्वि० । यहि० विसे० । वेजव्वि ० ज० वि० संखेज्ज० । यहि० विसे० आहार ज०वि० संखेज्जगु० । यहि० विसे० । सव्वत्थोवा ओरालि० अंगो० ज० हि० । यद्वि० विसे० । वेडव्वि० अंगो० ज० द्वि० संखेंज्ज • ० । यहि विसे० । आहार० अंगो० ज० डि० संखेज्ज० । यहि० विसे० | संठा - संघडणं उक्कस्तभंगो | 1 ६२८. सव्वत्थोवा पसत्थ० ---तस०४ - थिरादिपंच ज० द्वि० । यहि० विसे० । तप्प पिक्खाणं ज० हि० विसे० । यद्वि० विसे० । सव्वत्थोवा जस० -- उच्चा० ज० हि० । यट्टि० विसे० । अजस० - णीचा ० ज० हि० असंखेंज्ज० । यट्टि० विसे० । एवं ओघभंगो कायजोगि ओरालि ० णत्रु' स० कोधादि०४ चक्खु०- भवसि ०० श्राहारए ति । जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । पञ्चेन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चतुरिन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे त्रीन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे द्वीन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे एकेन्द्रिय जातिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । ६१७. औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आहारकशरीरको जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। श्रदारिक आङ्गोपाङ्गका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्गका जगन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे आहारक प्राङ्गोपाङ्गका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । संस्थान और संहननोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । ६१८. प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क और स्थिर आदि पाँचका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । यशःकीर्ति श्रोर उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यशःकीर्ति और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, श्रदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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