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________________ २५७ उक्कस्सअंतरकालपरूवणा आदे। ओघेण णिरय-मणुस-देवायूर्ण उकस्सहिदिबंधगंतरं केवचिरं० ? जह० एग०, उक्क० अंसुलस्स असंखें असं० ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। अणु० जह० एग०, उक० चदुवीसं मुहुत्तं । सेसाणं उक्क० जह० एग०, उक्क. अंगुलस्स असं. असंखे० ओसप्पिणि । अणु० णत्थि अंतरं । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि--ओरालि०--ओरालियमि०--कम्मइ०--णवुस --कोधादि०४-मदि०-सुद०असंज०[चक्खुदं ] अचक्खुदं०--तिएिणले---भवसि०-अब्भवसि०--मिच्छादि०-- असएिण--आहार० अणाहारग त्ति । णवरि ओरालियमि.--कम्मइ०-अणाहारगे देवगदि०४-तित्थय० उक्क ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क मासपुधत्तं । तित्थय० वासपुधत्तं । ५५६. सव्वएइंदियाणं दोआयु० अोघं । सेसाणं उक्क अणु० एत्थि अंतरं । एवं वणप्फदि-णियोदाणं । ५५७. पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० बादरपुढवि०--आउ०-तेउ०-वाउ० तेसिं चेव पज्जत्ता० ओघं । वरि पज्जत्तेसु तिरिक्खायु० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे, नरकायु, मनुष्यायु और देवायु इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है . जो कि असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणो और अवसर्पिणी कालके बराबर है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल चौबीस मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल अङ्गलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो कि असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके बराबर है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंझी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, योगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्व है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। ५५६. सब एकेन्द्रिय जीवों में दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए। ५५७. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकयिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक तथा इन्हींके पर्याप्त जीवोंका भङ्ग श्रोधके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें तिर्यञ्चायुकी अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ' तथा तैजस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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