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________________ ३६८ महाबंधे हिदिबंधाहियारे वण्ण०४-दोआणु०-अगु०४-पसत्थवि० -तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेंअज०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० उक० वड्डी कस्स० ? यो जहण्णयं द्विदिबंधमाणो तप्पाओग्गजहण्णगादो संकिलेसादो उक्कस्सयं संकिलेसं गदो उक्कस्सयं द्विदिबंधो तस्स मिच्छत्ताभिमुहस्स चरिमे उक्कस्सए द्विदिबंधे वट्टमाण० तस्स उक्क० वड्डी। उक० हाणी कस्स० १ उकस्सयं द्विदिबंधमाणो सागारक्खयेण पडिभग्गो तप्पाओग्ग० जह० द्विदी० तस्स उक्क० हाणी । वड्डीए चेव उकस्सयं अवट्टायं । सादावे०-हस्स-रदि-आहारदुग-थिरसुभ०-जसगि० आहार भंगो। एवं मणपज्जव-संजद-सामाइयच्छेदो०-परिहार०-संजदासंज०-ओघिदं०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम-सम्मामिच्छा० । णवरि खड़गे उक्कस्सयं संकिलेसं कादव्यं । सुहुमसंप० अवगद भंगो। [ किण्ण० णील काउ० णिरयभंगो। तेउए सोधम्मभंगो । सुक्काए ] गवगेवज्जभंगो । सासणे णेरइगभंगो। असण्णि तिरिक्खोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो। __ एवं उक्कस्ससामित्वं समत्तं ८४१. जहण्णए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे०। ओघे० पंचणा०-णवदसणाoमिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुं०-तिरिक्खंदुग-पंचिंदि०-ओरालि०-वेउवि०-तेजा०-क०-दोअंगो०-वण्ण०४ अगु०४-उज्जोव-तस०४-णिमि०–णीचा०-पंचंत० जह० कस्स० १ न्द्रिय जाति, चार शरीर, समचतुरस्र संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है और जो मिथ्यात्वके अभिमुख होकर अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें विद्यमान है, वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभन्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है, वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। और वृद्धिके होनेपर ही उत्कृष्ट अवस्थान होता है । सातावेदनीय, हास्य, रति, आहारकद्विक, स्थिर, शुभ और यश कीर्तिका भङ्ग आहारककाययोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी,संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धि सेयत,संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट संक्लेश करना चाहिये। सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। पीतलेश्यावाले जीवोंमें सौधर्म कल्पके समान भङ्ग है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें नौवेयकके समान भङ्ग है । सासाद न सम्यग्दृष्टिजीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । असंज्ञी जीवोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ८४१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चद्विक, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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