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________________ ८४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अगु०४-अप्पसत्थ०-तस०४-दूभग-दुस्सर-अण्णादें-णिमि०-णीचा०-पंचंत. णि बं० संखेज्जदिभागणं । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि--सोग-तिरिक्खगदि--मणुसगदि-- दोसंघ०-दोआणु०-उज्जो -थिराथिर-सुभासुभ-जस--अजस० सिया० संखेंज्जदिभागू० । अद्धणारायणं सिया० । तं तु० । एवं अद्धणारायणं । वामणसंठाणं पि एवं चेव । णवरि खीलिय• सिया० । तं तु । .वं खीलिय० । १६६. पर० उक्क०हिदिवं० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०-णवुसभय-दुगु-तिरिक्वगदि-एइंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-हुड०-वएण०४-तिरिक्वाणु०अगु०-उप०-थावर-मुहुम-साधारण-दूभग-अणादें-अज-णिमि०-णीचा०-पंचंत. णि बं० संखेज्जदिभागू० । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-अथिर-असुभ. सिया० संखेजदिभागू० । पज्जत्त-उस्सा० णि बं० । तं तु० । थिर०-सुह सिया० । चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, दो संहनन, दो अानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। अर्धनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियम से उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । वामन संस्थानको मुख्यतासे सन्निकर्ष इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह कीलक संहननका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भीबन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार कीलक संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १६६. परघात प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, अस्थिर और अशुभ इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि वन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थिति का वन्धक होता है। पर्याप्त और उच्वास प्रकृतियोंका नियमसे वन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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