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________________ द्विदिप्पा बहुगपरूवणा २८७ O संखेज्ज० । यहि० विसे० । ओरालि० अंगो० ज०ट्ठि० थोवा । यहि० विसे० । वेजव्वि० [० - आहार अंगो० ज० हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । सेसारणं श्रघं । सव्वापज्जत - सव्वविगलिंदिय- पंचकायाणं पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्तभंगो । ६२५. देवाणं णिरयभंगो । वरि थोवा पंचिंदि०-तस० ज०वि० । यहि० विसे० । एइंदि० थावर० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । | ६२६. एइंदिए तिरिक्खोघं । गवरि गदी रात्थि अप्पा बहुगं । पंचिदयपंचिदियपज्जत्ता० सत्तरणं कम्माणं श्रवं । सव्वत्थोवा देवगदि० ज० द्वि० । यहि० विसे० | मणुसग० ज० द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । तिरिक्खग० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । रियग० ज० हि० विसे० । यहि० विसे० । एवं आणुपु० । सेसं घं । एवं तस-तसपज्जत्ता । वरि विसेसो । सव्वत्थोवा मणुसग० ज० वि० । यद्वि० विसे० । तिरिक्खगदि० ज० द्वि० विसे० । यहि० विसे ० | देवगदि ज० द्वि० संखेज्ज० । यद्वि० विसे० । गिरयग० ज०हि० विसे० । यद्वि० विसे० । . स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिक और आहारक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । औदारिक श्रङ्गोपाङ्गका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे वैक्रियिक और श्राहारक श्राङ्गोपाङ्गका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है तथा शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे श्रल्पबहुत्व श्रोघके समान है । सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावर कायिक जीवोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । ६२५. देवोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति और का जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे एकेन्द्रिय जाति और स्थावरका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । ६२६. एकेन्द्रियोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान अल्पबहुत्व है । इतनी विशेषता है कि इनमें गतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है । पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकों में सात कमका अल्पबहुत्व श्रधके समान है । देवगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार चार श्रानुपूर्वियोंकी अपेक्षा श्रल्पबहुत्व जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका श्रल्पबहुत्व के समान है । इसी प्रकार सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंके जानना चहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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