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________________ ३२४ महाबंधे हिदिधाहियारे भुजगारबंधो ६६२. एत्तो भुजगारबंधो त्ति । तत्थ इमं अट्ठपदं मूलपगदिद्विदिभंगो कादव्यो । एदेण अद्रुपदेण तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहासमुकित्तणा याव अप्पाबहुगे ति [१३] । समुक्त्तिणाणुगमो ६६३. समुक्त्तिणाए दुवि०-ओघे० आदे० । ओषेण पंचणाणावरणीयाणं अत्थि भुजगारबंधगा अप्पदरबंधगा अवडिदबंधगा अवत्तव्वबंधगा य । चदुण्णं आयुगाणं अत्थि अवत्तव्व० अप्पदर० । सेसाणं मदियावरणभंगो। एवं ओघभंगो मणुसा०३-पंचिंदियतस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजागि-ओरालिय०-चक्खुदं०-अचक्खुदं०-भवसिद्धि० सण्णि-आहारग त्ति । ६६४. णिरएसु पंधणा०-छदंसणा०-बारसक०-भय-दु०-पंचिंदि० ओरालि०-तेजा.. क०-ओरालि अंगो०-वण्ण०४-अगु०४-तस०४-णिमि०-पंचंत० अत्थि भुज०-अप्पद०अवढि० । सेसं ओघं । एवं सत्तसु पुढवीसु । ६६५. तिरिक्खेसु पंचणा०-छदसणा०-अट्ठकसा०-भय-दुगुं०-तेजा०-कम्म०-वण्ण०४. अगु०-उप०-णिमि०-पंचत० अत्थि भुज०-अप्पद०-अवढि०। सेसाणं ओघं। एवं भुजगारवन्धप्ररूपणा ६६२. इससे आगे भुजगारबन्धका प्रकरण है। उसके विषयमें यह अर्थपद भूलप्रकृति स्थितिबन्धके समान करना चाहिए। इस अर्थपदके अनुसार यहाँ ये तेरह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं यथा--समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक १३ । समुत्कीर्तनानुगम ६६३. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । आघसे पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतर बन्धक जीव हैं, अवस्थित बन्धक जीव हैं और अवक्तव्य बन्धक जीव हैं । चार आयुओंके अवक्तव्य बन्धक जीव हैं और अल्पतर बन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मतिज्ञानावरणके समान है। इसी प्रकार ओघके समान मनुष्य/त्रक, पञ्चन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, चतुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६६४. नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पश्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। ६६५. तिर्यश्लोंमें पाँच ज्ञानावरण, लह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय इनके भुजगारबन्धक जीव हैं, अल्पतरबन्धक जीव हैं और अवस्थितबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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