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वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
पानी छोड़ रही। सचमुच बाबाजीका प्रेम व आकर्षण विस्मयजनक है। "भैया निवृत्तिमें ही सुख है प्रवृत्तिमें नहीं"।
एक समय बाबाजीने किसी स्थानके लिए एक हजार रुपये दान में लिखवा दिये। रुपया पासमें नहीं। सोचा,लिखवा तो दिये पर देगें कहांसे ? कुछ रूपया मासिक कलके लिए बाईजी देती थीं। बाबाजीने फल लेना बन्दकर रुपया पोस्ट आफिसमें जमा कराना प्रारम्भकर दिया । बाईजीकी नजर अनायासही पासबुक पर पड़ गयी, पूछा 'भैया रुपया कायेको इकटठे करत हो, का कोउ कर्ज चुकाउने हैं ।” रहस्य न छिपा सके। तब बाईजीने कहा “काये तुमसे जा सोई कई है कै दान जिन करो, नई तो फिर छिपाश्री काय ?" बबाजीने कहा 'बाई जी दान मैंने किया है आपने नहीं। दान अपनी ही चीजका होना चाहिए इसीलिए मैं ये रुपये इकट्ठ कर रहा था । यदि मैं आपको बता देता तो आप अपने रुपये देकर मुझे ये रुपये न बचाने देतीं।" सुज्ञ बाईजीने आदर्श को समझा और प्रसन्न हुई। कैसी कोमल कठोर आस्म निर्भरता थी।
सागर]
लक्ष्मणप्रसाद "प्रशांत"
में बौद्ध कैसे बना
आजसे प्रायः पन्द्रह वर्ष पूर्वकी बात है । मैं काशी विश्वविद्यालयमें दर्शनका विद्यार्थी था । उन दिनों एक प्रसिद्ध विद्वानका भाषण हो रहा था। सुना कि अगले दिन जैनधर्म पर व्याख्यान होगा। मुझे तो जैनधर्मका कोई ज्ञान न था। किन्तु उस समय अपने धर्मपुस्तक सत्यार्य-प्रकाशके अमुक समुल्लासमें जैनधर्मके सभी खंड न याद थे। विचार हुआ कि उसीके आधारपर कल के भाषणके बाद वक्ताको सभामें परास्त कर वैदिकधर्मका श्रेष्ठय स्थापित करूंगा।
दूसरे दिनयः सभापति थे स्वयं आचार्य ध्रुव। प्रारम्भमें उन्होंने वक्ताका परिचय अत्यन्त श्रद्धापूर्ण शब्दों में दिया ! व्याख्यानको आदिसे अन्ततक बहुत ध्यानपूर्वक सुना । इतना साफ और प्रबल व्याख्यान हुआ कि मुझ आर्यसमाजोके सुतर्ककी नोंक कहीं न गड़ी । तो भी आर्यसमाजी चुलबुलाहटसे मैंने कुछ छेड़ ही दिया, और जैनधर्मके अपने अज्ञान के कारण मुझे सभामें वेतरह लजित होना पड़ा। सत्यार्थ-प्रकाशकी अपनी प्रामाणिकताका बुरी तरह भंडाफोड़ कराकर मुझे बड़ा क्षोभ हुआ । मुंह छिपाकर निकल पाया । श्रद्धेय वणी जीसे वह मेरी पहली भेंट थी। उनके मधुर भाषण और प्रभावशाली सौन्यका आकर्षण इतना अधिक रहा कि चार पांच
बयालीम