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संस्मरण
बाबाजीका हृदय दुःखी हो उठा, अाखोंसे दो बूंद आंसू टपक पड़े। कड़ाकेकी ठण्ड पड़ रही थी तो भी बाबाजीने तनपर लपटे हुए दो चद्दरों में से एक उतारकर श्रा० हि० फौ० के चन्देमें अर्पित कर दिया; दश मिनटके बाद ही वह तीन हजार रुपयेमें विक गया। महत्त्वकी बात तो यह थी कि उन्होंने अपने भाषण में अंग्रेजोंके लिए एक भी कड़ा शब्द न कहकर 'आजाद हिन्द फौजवालोंका कोई बाल बांका नहीं कर सकेगा' ऐसी दृढ़ घोषणा की थी । कैसी दया और अात्म विश्वास है।
सत्यनिष्ठा व दया
धर्ममाता सी० चिरोंजाबाईजीने कहा "भैया लकड़ी नइंआ, जाश्रो ले आवो" बाबाजी बाजार पहुंचे, लकड़हारेसे पूछा “मोरी ( गट्ठा) कितेकमें देय ।” उसने जवाव दिया “जो समझो सो दे दियो मराझ" । बाबाजी, "चार थाना लेय !" वह राजी हो गया, घर तक पहुंचानेकी मजदूरी भी दो आने कह दी। घर पहुंचे बाईजी बड़ी नाराज हुई', 'दो आनेकी लकड़ीके छह आने दे आये, बड़े मूरख हो।" बाबाजीने लकड़हारेकी वकालत की, पर माताजी भी लौकिकताका पाठ पढ़ानेका इरादा कर चुकी थी, एक न सुनी तीन अाने ही दिलवाये । भोजन बना, बाबाजी भोजनको बैठे पर भोजन अच्छा न लगा। बाईजीने पूछा “भैया भूख नंइया का, काये नई खात ।" बाबाजीने जबाव नहीं दिया, "अभी श्राता हूं, कहकर जल्दी ही बाहर चले गये। उस लकड़हारेको ढूंढना प्रारम्भ किया, वह मिला, उसे शेष पैसे दिये और वापस घर लौट आये। बाईजीके पूछने पर स्पष्ट कह दिया कि बाईजी ! लकड़हारेके पैसे देने गया था। मां का हृदय इस सरलता और सत्य पर लोट पोट हो गया। प्रेम व आकर्षण
गर्मीका समय था पूज्य बाबाजी द्रोणगिरिमें प्रवासकर रहे थे । गांवमें शुद्ध दूधका प्रबन्ध न था इसलिए एक गाय रक्खी गयी थी परन्तु वह मरकऊ थी। धनीके सिवा किसीको भी पास नहीं आने देती थी। लोग उसकी चर्चा कर रहे थे कि इसी बीच में बाबाजो आ अहुंचे और उन्होंने भी बात सुनी, बोले, चलो देखें कैसे मारती है। लोगोंने रोका, महाराज श्राप न जायें, परन्तु वह न माने और हाथमें एक पाव किसमिस लेकर उसके आगे पहुंच गये। गायने एकटक दृष्टि से बाबाजीको देखा और सिर झुका लिया । बाबाजी उसके सिरपर हाथ रखकर खड़े हो गये । लोग चकित हो देखते रह गये, मैत्रीपूर्ण हृदयने दुष्ट पशुको सहज ही मित्र बना लिया था। इतना ही नहीं उसने बाबाजीको दूध भी पिलाया तथा महाराजने भी उसे कभी-कदाच मिष्टान्न खिलाये । पशु भी पशुता भूल सकता है यह उस दिन पता लगा जब बाबाजीके चले जानेपर वह वियोगाकुल गाय इधर-उधर रम्हाती फिरती थी और अन्तमें बाबाजी की कोठरीके सामने आकर खड़ी हो रही और कई दिन तक घास
इकतालीस