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करने की जरूरत नहीं। आइए।" पण्डितजी ने कहा। वहाँ से वे सीधे बच्ची के पास गये। कहा, "बात मालूम हो गयी। महारानीजी की छाया प्रांगण में देख बच्ची डर गयी होगी। कोई चिन्ता नहीं, मैं इस डर का निवारण कर दूंगा। बच्ची के पास किसी-न-किसी को सदा रहना होगा। दो-दो घण्टे बाद इस चूर्ण को चटाते रहना होगा।" यह कहकर और तीन पुड़ियाँ देकर बोले, "अब आज्ञा हो?"
"अच्छा।" शान्तलदेवी बोली। पण्डितजी चले गये। बाद में एक-एक कर सब वहाँ से निकल गये। बिट्टिदेव, शान्तलदेवी, माचिकब्बे और पद्मलदेवी-ये चार मात्र वहाँ रह गये।
"सन्निधान आराम करें, सुबह से ही परिश्रम करना पड़ा-सो थक गये होंगे. धुप में भी तपे हैं।'' कहकर शान्तलदेवी ने महाराज बिट्टिदेव को यहाँ से भेज दिया।
माचिकटवे ने कहा, ''मैं बच्ची के पास रहूंगी।" शान्तलदेवी ने माना नहीं, "मेरा रहना ही ठीक है। आप लोग जाकर आराम
और कोई चारा न था। दोनों वहाँ से चला गया। तीन-चार दिनों में ही बच्ची स्वस्थ हो गयी।
महामातृ श्री की अन्त्येष्टि क्रियाएँ विधिवत् सम्पन्न हो गयीं। राजपरिवार ने महामातृश्री की प्रतिष्ठा के अनुरूप दान-धर्म किया।
मरियाने दण्डनायक की बरसी पर पथलदेवी दोरसमुद्र गयी। इधर राजमहल में एक तरह से जीवन गुजरता चला जा रहा था। अस्वस्थ स्थिति में आये हेग्गड़ेजी और माचिकव्ये दोनों अभी यादवपुरी ही में रहे। महामातृश्री के निधन के बाद यह वर्ष यन्त्रवत् गुजरा। बरसी के लिए पालदेवी वगैरह फिर आयीं। अधिक दिन ठहरी नहीं। दोनों भाभियों के प्रसव का समय निकर था, इसलिए वे जल्दी ही लौट गयीं। एक तरह से महादण्डनायक की बेटियाँ पुरानी बातों को भूलकर एक नयी रीति से जीवन के साथ समझौता कर, काल-यापन कर रही थीं। पुरानी बातों के बारे में कुछ कहे बिना आपस में गौरवपूर्ण व्यवहार करने से किसी तरह की विरसता के लिए मौका न देकर उनके दिन गुजरते गये।
यादवपुरी में रहते समय महामातृश्री ने पद्मलदेवी से जो बातें कही थीं, उन्हें दृष्टि में रखकर पद्यलदेवी बम्पलदेवी और राजलदेवी के अन्तरंग को समझने की कोशिश करने लगी। पद्मलदेवी के पिछली घटनाओं से परिचित होने के कारण वे दोनों विनीत भाव से आदरपूर्ण व्यवहार करती थीं और किसी भी बात में उलझती
50 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन