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"ऐसा क्यों कहेगा? आप यहाँ के स्थपति हैं। आपका निर्णय ही अन्तिम
"वह अधिकार होने पर भी, अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए उसका उपयोग नहीं करूंगा।"
"परिस्थिति के अनुसार निर्णय कीजिएगा। आपका निर्णय हमें मान्य है। यदि बात को हम तक पहुँचाना ही है, तो आप राजमहल आ जाएँ। भोजन के बाद आइए।"
"जो आज्ञा!" शान्तलदेवी और अन्य सभी वहाँ से चले गये।
वहाँ राजमहल में तिरुवरंगदास अपनी पोष्य-पुत्री से मिले और स्थपति के निवास पर घटी घटना की सारी बातों को नमक-मिर्च लगाकर बताया और उसके कान भरे। कहा, “बेटी, मुझे एक घुमक्कड़ से पाठ सीखने का समय आ गया न? मुझे यहाँ आना नहीं चाहिए था। श्री आचार्यजी की बात न मानकर मैंने अनुचित किया। देखो न वह स्थपति भी कितना अहंकारी है। उसने इस तरह कहा कि हम बुजुर्गों को उदार होना चाहिए, मानो वह कह रहा है कि चुपचाप चले जाओ। जो काम किया है, वह अच्छा है, कहने पर ही वह घमण्ड दिखाने लगा। इस सबका प्रमुख कारण क्या है, जानती हो? पमहादेकी ने उन सबको बढ़ा-चढ़ाकर ऊपर बिठा दिया है।" आदि-आदि कहकर इस तरह उसे समझा दिया कि वह जो कह रहा है, वही ठीक है, वही अच्छा है, शेष सब लोग दोषी
लक्ष्मीदेवी के मन में इन बातों को सुनकर पता नहीं क्या-क्या भावनाएँ उठ रही थीं। फिर भी उसे नहीं सूझा कि क्या करना चाहिए। उसने कहा, "इस गड़बड़ी में किसी से मिलना कठिन है। इसलिए आप अब कहीं न जाएं, किसी से न मिलें, चुपचाप अपने को संभालकर रह जाइए। प्रतिष्ठा का यह उत्सव समाप्त हो जाए; बाद में इन बातों पर विचार कर कुछ निर्णय करेंगे। जिसने नमक खाया है, उसे पानी पीना ही पड़ेगा।" यों उसने पिता को शान्त करने का प्रयास किया।
"बेटी! जो कहती हो, सो ठीक है। तब तक इस विषय में सोचने-समझने तथा समझाने के ढंग आदि को निश्चय करने के लिए भी समय मिल जाएगा।"
फिलहाल उसकी आपत्तियों लक्ष्मीदेवी तक हो रहीं। इसके बाद वह अपने निवास पर चला गया।
स्थपति ने सूचना भेजी कि सन्ध्या को उस युवक के साथ राजमहल पहुँचेंगे, सन्दर्शन के लिए अवसर मिले। शान्तलदेवी ने इसका अर्थ समझ लिया।
उन्होंने एक छोटी मन्त्रणा सभा का ही आयोजन कर डाला। इस मन्त्रणा
462 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन