Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 3
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 466
________________ 'यदि यह बात सिद्ध हो गयी कि प्रस्तर दोषयुक्त है तो आप लोगों से निर्णीत एवं आचार्य के द्वारा स्वीकृत मुहूर्त का क्या होगा?" बिट्टिदेव ने पूछा। "इतने प्रसिद्ध शिल्पी यहाँ मौजूद हैं। ठीक समय पर एक दुसरी मूर्ति तैयार हो जाएगी।" परन्तु इस पर किसी शिल्पी ने कुछ उत्तर नहीं दिया। उन लोगों ने परस्पर एकदूसरे की ओर देखा। ___ "क्या कहते हैं शिल्पी?" बिट्टिदेव ने पूछा भी। किसी ने यूं तक नहीं की। चावुण उठा और बोला, "यह कठिन काम है। समय बहुत कम है, अत: साहस नहीं होता।" "ऐसा है तो काम कैसे चलेगा?" बिट्टिदेव ने पूछा। स्थपति ने कहा, "यह युवक एक दिन में मूर्ति को बना सकेगा। मैं भी एक दिन में तैयार कर सकता हूँ। हम दोनों में से किसी एक के हाथ तो बचे रहेंगे न? डरने की आवश्यकता नहीं। जो मुहूर्त ठहराया है, उसी मुहूर्त में प्रतिष्ठा होगी।" सारी सभा में मौन छा गया। स्वयं विद्भिदेव निर्णय न सुना सके, उन्होंने पट्टमहादेवी के कान में कुछ कहा। अन्त में वे उठ खड़ी हुई, और बोली, "अब दोनों शिल्पियों की राय एक है कि परीक्षण हो। तब वही हो। कल सुबह सार्वजनिकों के समक्ष यह परीक्षा होगी। अभी सन्निधान ने केवल परीक्षा के लिए ही स्वीकृति दी है। शेष बातों पर बाद में विचार किया जाएगा। अब यह सभा विसर्जित होती है। इस सभा में भाग लेनेवाले तथा उपस्थित रहकर योग देनेवाले सभी के प्रति राज-परिवार कृतज्ञ है।" बिट्टिदेव उठ खड़े हुए। शेष सब लोग भी उठ गये। सभी के चेहरों पर एक तरह का असन्तोष झलक रहा था। यह कौन बला है जो हमारे पीछे पड़ गयी! यही सोचते हुए सब लोग चले गये। तिरुपरंगदास को तो एक तरह से सन्तोष ही हो रहा था। वेलापुरी-भर में कौतुक-भरी यह बात फैल गयी। सभा समाप्त होने के बाद राजमहल के मुखमण्डप की ओर यह युधक जा रहा था, तो रेविमय्या ने उससे भेंट की और कहा, "पट्टमहादेवीजी बुला रही हैं, आप थोड़ी देर यहीं ठहरें।" वह ठहर गया। स्थपतिजी वहीं उपस्थित थे, उन्होंने रेविमय्या की ओर प्रश्नार्थक दृष्टि से देखा। रेविमय्या ने उनकी दृष्टि को समझ लिया, संकेत से बता दिया कुछ नहीं। वह अपने निवास की ओर चल पड़ा। सभी आगन्तुकों के चले जाने के बाद, रेविमय्या युवक को अन्त:पुर में ले गया। उसे आते देख पट्टमहादेवी ने स्वागत किया, "आओ बेटा, बैठो!" कहकर एक आसन दिखाया। 468 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन

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