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बात कहना चाहता हूँ। प्रज्ञा ग्रहण-शक्ति पर अवलम्बित है। केवल अनुभवमात्र पर्याप्त नहीं। इस युवक की प्रज्ञाशक्ति पर मैं मुग्ध हूँ। उस पर अविश्वास रखकर उसके कौशल की परीक्षा करने की दृष्टि से जब मैंने वेणुगोपाल की मूर्ति को बनाने के लिए कहा, तब उसके काम करने की रोति को देखकर, मैं चकित हो गया था। आज मैं पराजित हूँ। छोटे से बड़ा हारा। इससे बढ़कर अपमान की बात
और क्या हो सकती है, ऐसी भावना का उत्पन्न होना असहज नहीं। परन्तु मुझमें ऐसी भावना नहीं। मुझे इस बात की भारी प्रसन्नता है कि अधिक ज्ञान, जानकारी और प्रतिभा को मान्यता प्राप्त हुई। इसी आनन्द में इतने लोगों के सामने अपने वचन के पालन के लिए, मुझे अनुमति देने की कृपा करें।" स्थपति ने कहा।
__ "स्थपतिजी, आपकी भावना सराहनीय है। प्रत्येक कार्य के करने में उचित-अनुचित का विचार किया जाता है। वचन-पालन के लिए योग्य वातावरण की सूचना पट्टमहादेवीजी देंगी। उनके कार्याचरण और सदुद्देश्यों पर आप सहमत होंगे, ऐसा हमारा विश्वास है। यह बात उनके ऊपर है। इस समय आप केवल मौन प्रेक्षक हैं।" बिट्टिदेव ने कहा। फिर युवा शिल्पी की ओर देखा और पूछा, "क्या और भी प्रतीक्षा करनी है? या स्थपति के मान लेने के बाद, इस परीक्षण को यहीं समाप्त कर दें?"
"उनके मान लेने पर यह समाप्त ही है न!" युवा शिल्पी ने कहा।
"यह तो हुआ कि शिला दोषयुक्त है, परन्तु यह ज्ञात नहीं हुआ कि किस प्रकार का दोष है?" शान्तलदेवी ने कहा।
"इस पत्थर में गीलापन है। जलाशयुक्त शिला दोषयुक्त होती है। गोलापन होने के कारण, वह भाग सूखा नहीं। जहाँ गीलापन नहीं, वह सारा भाग सूख गया।" युवा शिल्पी बोला।
"केवल गीलापन ही नहीं, अन्दर पानी भी है। हो सकता है उसमें कोई प्राणी भी हो," स्थपति ने कहा।
"उसके अन्दर प्राणी का जीवित रहना कैसे सम्भव है?" युवा शिल्पी ने
कहा।
"परीक्षा करें तो पता लग जाएगा।" स्थपति बोले।
शान्तलदेवी ने महाराज के कान में कुछ कहा। स्थिति को देख लोगों में एक बार फिर कुतूहल जागा; आगे क्या होगा...!
___ अन्त में महाराज ने कहा, "उसकी भी परीक्षा हो जाय । इसमें किसकी राय ठीक है, सो भी देख लें।" निर्णय ही सुना दिया। विग्रह स्वच्छ किया गया। एक शिल्पी को आदेश दिया गया। उसने केशव भगवान् के नाभि-देश को विस्तृत करने के लिए छेनी लेकर धीरे-से उस पर प्रहार किया। गोलाकार प्रस्तर का एक
478 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन