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"अपने घराने के रहस्य को डर के कारण प्रकट नहीं कर सकता। मेरा वंश पवित्र है। उसके बारे में तरह तरह की बातें लोग कहें, इसके लिए अवसर नहीं
दूंगा।"
"आपको पता नहीं। लोग कह कहकर थक चुके, कहना छोड़ अब भूल गये। तब आप छोटे बच्चे थे, इसलिए आपको कुछ भी पता नहीं।"
"हो सकता है। वह हमारा गाँव ही जिसे भूल गया है, उसी को यहाँ सबके समक्ष नहीं कहलवाया जा सकता। वह मातृद्रोह होगा।"
"मातृद्रोह है या पितृद्रोह ?" युवक ने कुछ उत्तर नहीं दिया। पट्टमहादेवी की ओर प्रश्नार्थक दृष्टि से देखने
लगा।
"मैंने उन्हें देखा ही नहीं।" "आपने देखा है। मैं साक्षी हूँ तो?" "पहचान नहीं सका-ऐसा भी हो सकता है।" "तो आप मान लेंगे कि आपके बारे में मुझे पर्याप्त परिचय है।"
युवक ने कुछ उत्तर नहीं दिया। लगता था उसकी आँखों के दीप टिमटिमा रहे हैं उन्हीं आँखों से वह शान्सलदेवी की ओर देख रहा था।
"मैन को मैं संगति मान लेनी गली माँ के लिए किसका सहारा
"और किसका? मेरा हो।" "इसकी भी जानकारी आपको नहीं है।" "जी!!"
"जीभ काट लूंगा, हाथ काट लूँगा जैसी बातें कहते-फिरते हैं ! आपका यह शरीर, आपकी चतुराई, हस्तकौशल, वाक्चातुर्य-सिद्धि इस सबके लिए आपके माता-पिता उत्तरदायी नहीं हैं?"
"जहाँ तक जन्म का सम्बन्ध है, यह सत्य है।" "उसके बाद उन्होंने आपके लिए कुछ नहीं किया?"
"माता ने मुझे पाला-पोसा, बड़ा किया, वंश-परम्परागत विद्या में परिणत बनाने के लिए परिश्रम किया।"
"उत्त ऋण को आप कैसे चुकाएंगे? उनकी आशा पर पानी फेरकर, उनके जीवन को दुःखमय बनाकर?"
"अभी मैंने ऐसा कौन-सा अपराध किया है ?"
''अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं किया, यही सौभाग्य की बात है। कहीं ऐसा कर न लें, इसी से आप इस बन्धन में हैं।"
482 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन