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इतनी बातें कह सकने का साहस भगवान् ने दिया, यही पर्याप्त है। यदि मैं सच्ची न होती तो भगवान् मुझे कभी इतना साहस न देता।" इतना कहकर उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
शान्तलदेवी ने कहा, "सन्निधान के समक्ष एक दुःखी प्रजा का निवेदन है, निर्णय करने की कृपा करें।"
बिट्टिदेव ने पूछा, "डंकण शिल्पीजी! आपका अन्वेषण समाप्त हुआ न?" "समाप्त है प्रभु!" "अब बता सकते हैं न, वह क्या है?" "कहने के लिए अब बचा ही क्या है?"
"है। आपकी माताजी ने आपका नाम तो बता दिया। परन्तु आपके पिताजी का नाम अभी किसी को पता नहीं।"
"वे क्रीड़ापुर के जकणाचार्य हैं।" "स्थपति जकणाचार्यजी! अब आप यायावर शिल्पी नहीं हैं, समझे!" "समझा!" "आप और आपका पुत्र, दोनों आज हमें एक वचन दें।" "आज्ञा हो!"
"आप दोनों को, समय-कुसमय में, जो बात कही उस पर ध्यान नहीं देना होगा। दोनों एक जगह असिद्ध हैं, एक जगह सिद्ध । बात बराबर। आप लोग भगवान् को साक्षी मानकर इस परीक्षा और प्रतिज्ञा की बातों को भूल जाएंगे। इस प्रसंग में कही गयी बात वहीं तक सीमित है, कार्यरूप में परिणत करने के लिए नहीं। यों इस महासाध्वी को वचन दें, तभी आप बन्धन से मुक्त होंगे।" बिट्टिदेव ने कहा।
___ "हमने बात कही थी सर्वजनों के समक्ष, कल सार्वजनिक मनमानी बातें करेंगे ऐसी स्थिति न हो। सन्निधान उनसे पूछ लें!" जकणाचार्य ने कहा। बिट्टिदेव ने इंगित किया और उन दोनों के बन्धन खोल दिये गये। महाराज ने स्थपति की बात को सुनाया।
सभी जनों ने अपना निर्णय घोषित किया, "इन पिता-पुत्रों के हाथों से ऐसे सैकड़ों मन्दिर का निर्माण होना चाहिए। उनसे इनकी कीर्ति स्थायी होनी चाहिए। यह राष्ट्र के लिए उनकी अमूल्य देन है इसलिए इनके इन हाथों को ज्यों-का-त्यों रहने देना उचित होगा। इन्हें दण्ड नहीं, पुरस्कार मिलना चाहिए।"
"जनता का निर्णय मेरे लिए मान्य है।" कहकर जकणाचार्य ने अपनी पत्नी के हाथ पर, अपना हाथ रखा।
"मैं भी मान लेता हूँ" कहते हुए डंकण ने उन दोनों के हाथों पर अपना हाथ रखा।
484 :: पट्टमहादेषी शान्तला : भाग तीन