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यहाँ मिल जाय, कल यहाँ आयी। बेटे के स्वभाव को माता से अधिक कौन समझ सकता है? यहाँ की स्थिति, स्पर्धा, परीक्षा आदि बातों को जानकर वे मुझसे मिलने की इच्छा से आयीं। उनके साथ उनके भाई भी थे। उन्हें स्थपति
और युवा शिल्पी दोनों को दिखाया गया। परन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं हुआ कि उन्हें किसी दूसरे ने देखकर पहचाना है। उनको अपनी जो आकांक्षा थी, उसे हमें बताया। युवा शिल्पी इस बात को छिपाता रहा। परन्तु उससे उसके गाँव का पता लग गया था। हम स्वयं सोच रहे थे कि किसी को भेजकर पता लगायें। पर इतने में ही वे यहाँ उपस्थित हो गयीं तो हमारा कार्य यूँ ही सध गया। उनसे सारी बातें पता लगी, तो हम एकदम आश्चर्य-सागर में डूब गयीं। इस अवस्था में इनकी त्रुटियों के लिए दण्ड-विधान नहीं सूझा है। हमने उस युवा शिल्पी को इस माता के आने की बात जतायी नहीं। परन्तु अब आप लोगों को बताने का कारण यह कि अब आप लोगों के सामने एक बड़ी ही हृदयहारी घटना घटनेवाली है। वह आप लोगों के लिए बहुत आनन्ददायक होगी-ऐसा हम सोचते हैं। उस आनन्द के प्रवाह में त्रुटियाँ बह जाएँगी, यही हमें लग रहा है। अब आप स्वयं निर्णय करें।" फिर महाराज की ओर मुड़कर कहा, "अब उन शिल्पियों को बलवा सकते हैं।"
महाराज ने इंगित से ही भाना दे दी! दोनों शिल्पी पुनः उपस्थित हुए। अपनी-अपनी जगह बैठ गये। उनका वह बन्धन ज्यों-का-त्यों रहा। बाद में शान्तलदेवी ने उस युवा शिल्पी की ओर मुड़कर कहा, "क्रीडापुर के शिल्पीजी!"
उसने धीरे से कहा, "क्या?"
शान्तलदेवी ने देखा कि स्थपतिजी अब क्या कर रहे हैं। स्थपति ने एक बार युवक की ओर देखकर फिर अनदेखा-सा कर दूसरी ओर दृष्टि डाल ली। वास्तव में तब उनसे यह काम करानेवाला उनका वह सुप्त मन था।
"आपने अपना गाँव क्यों छोड़ा और कितना समय हुआ छोड़े हुए?" "यह सब दूसरों के लिए अनावश्यक है। मैं नहीं बता सकता।"
"आप ही बताएं तो अच्छा। नहीं तो आपके अन्तरंग में प्रवेश कर उसे कहना पड़ेगा।"
"मेरा अन्वेषण कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है। मैं किसी तरह का दण्ड भोगने के लिए तैयार हूँ, किन्तु सार्वजनिक रूप से यह सब कहने के लिए तैयार नहीं हूँ। उनके लिए यह अनावश्यक है। आप भी अपने अधिकार का प्रयोग करके मुझसे कहलवा नहीं सकेंगी। क्योंकि वह केवल मेरे घराने तक सीमित बात है। चहुंओर प्रदर्शित करने की नहीं। सन्निधान मुझे क्षमा करें।"
"आप अब एक तरह से बन्धन में हैं, आपको छुटकारा नहीं चाहिए?"
पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग तीन :: 481