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टुकड़ा निकला और अन्दर से पानी फूट पड़ा। एक बड़ी जंगली मक्खी के बराबर का मेढक उछलकर शिल्पी की गोद में आ गिरा। शिल्पी के मुंह से निकला, "चेन्नकेशव के गर्भ में मेढक!"
लोग कहने लगे, "पत्थर में मेढक!" "हाँ, पत्थर में मेढक जी कैसे सकते हैं?"
"भगवान् की इच्छा हो तो सब कुछ हो सकता है। आग में जले बिना रह सकते हैं। खौलते हुए तेल में डालने पर भी एक फफोले के बिना सहीसलामत बाहर निकलनेवाले भी आखिर उसी भगवान् की कृपा से रक्षित होते
"सो तो ठीक है। इस मेढक ने नाभि का आश्रय क्यों लिया?"
"अरे मूर्ख, पहले ब्रह्मा का जन्म वहीं से हुआ, केशव की नाभि से उत्पन्न कमल में। वैसे कमल पानी में उत्पन्न होता है। वह पृथ्वी पर उत्पन्न होता है तो समझो कि नाभि में पानी होता है।"
"हो सकता है, पर मेढक उसके अन्दर कैसे गया होगा?" "यही तो भगवान् की लीला है।"
"लीला उसकी नहीं...अब बेचारे उन शिल्पियों की...सोचा कुछ हुआ कुछ और ही। यह दुनिया बड़ी विचित्र है।"
"विचित्र है, इसीलिए इसे दुनिया कहते हैं।"
उधर महाराज और पट्टमहादेवी दोनों मूर्ति के पास गये और केशव-गर्भसंजात मण्डूक शिशु को देख लौट आये और अपनी जगह बैठ गये। बाकी रानियाँ तथा प्रमुख लोग भी जाकर देख आये।
__ लोगों में बातें हो ही रही थीं। कुतूहल-भरे लोगों को संभालना पहरे पर के सिपाहियों के लिए कठिन हो गया। लोग संयम का पालन करनेवाले थे, इसलिए इतनी कठिनाई का अनुभव नहीं हुआ, कुछ गड़बड़ी भी नहीं हुई।
तिरुवरंगदास ने भी उस विग्रह को नाभि से निकले मेहक को देखा। उसकी बुद्धि में कुछ और ही विचार आये। वह क्या था, सो उसी की समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु उस विचार ने उसे मन-ही-मन बहुत क्रियाशील कर रखा है. इतना उसके चेहरे से लक्षित हो रहा था। उन्हीं विचारों में मग्न होकर वह अपने आसन की ओर चला गया।
फिर महाराज उठ खड़े हुए। बन्दिमागधों ने जनसमूह को शान्त रहने की चेतावनी दी। मौन छा गया।
"केशव-गर्भ-संबात मण्डूक ने हमारी एक जटिल समस्या को हल कर दिया, यद्यपि मण्डूक की उपस्थिति वहाँ स्वयं एक समस्या है। यह बात आगे चलकर
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 479