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"हौं, गौरव रहा। तुम्हारे अन्तरंग में यह भय भी उत्पन्न हुआ कि लोग मेरी बात को पुष्ट करेंगे। तब सुप्त मन ने तुम्हें प्रेरित किया। उसके फलस्वरूप तुम्हारी बातों में व्यंग्य सम्मिलित हो गया। क्योंकि स्थपतिजी हार का सामना करने से डरेंगे, यह राज-परिवार, पट्टमहादेवी आदि डरेंगी, ये सब विचार तुम्हारे मन में पैदा हुए।"
"आपकी बातों को जब सुनता हूं तो लगता है कि सम्भवतः ऐसे विचार हुए हों। परन्तु ऐसा क्यों लगना चाहिए यही समझ में नहीं आता।"
"उसका कारण, तुम्हारे और तिरुवरंगदास के बीच जो वाद-विवाद चला वही है। यहाँ के सब लोग समझते हैं कि तुम सबसे छोटे हो और इसलिए तुम्हारी बातों की ओर ध्यान नहीं देते, इस तरह का भाव तुम्हारे अन्तरंग में जाग्रत हो बैठा। तुम्हारी सारी बातें उसी के परिणामस्वरूप हैं। बुद्धिपूर्वक तुमने बात नहीं की। उनमें कुछ बातें तुम्हारे सुप्त मन की प्रेरणा थीं। उसकी जानकारी तुम्हें है या नहीं मैं नहीं कह सकती। शान्ति के साथ बैठकर सोचो तो तुम्हें मेरी बातें समझ में आ सकेंगी।"
"प्रयत्न करूंगा। मेरे मन में उद्दिष्ट व्यंग्य नहीं रहा। इतना तो सन्निधान को मानना होगा।"
"यदि मेरे मन को जंचा तो मैं सचमुच मान लेती हूँ। परन्तु यह परोक्षणपरिशीलन इस सबकी पृष्ठभूमि क्या है, यह समझ में नहीं आ रहा है। इस मन्दिर के कार्य को आरम्भ हुए लगभग दो साल बीत गये। उसके पहले ही मुख्य-मुख्य शिल्पियों की बस्तियों में सूचना भेजी गयी थी। तुम नहीं आये, बीच में भी नहीं आये। अब जबकि मुहूर्त निश्चित हो गया है, आये हो। इसलिए तुम्हारे उद्देश्य में सद्भावना है, इस बात को हम कैसे माने?" ___ "तो सन्निधान की यह भावना है कि मेरी बातें अविश्वनीय हैं?"
"एक व्यक्ति को उक्त बातें सही हैं, ऐसा मानना हो तो वह व्यक्ति कौन है, क्या है. आदि सभी विषयों का परिचय होना आवश्यक है। जब तक ये सब बातें ज्ञात नहीं होंगी तब तक शंकाएँ होती ही रहेंगी।"
"तो आप जानती हैं कि यह स्थपति कौन है?' "तुम्हारी यही धारणा है कि नहीं जानती?" "यहाँ किसी को भी उनके बारे में कुछ भी पता नहीं।" "कोई नहीं जानता हो तो क्या मैं भी नहीं जानती? यही तुम्हारी राय है?"
"यहाँ के लोगों से ऐसा ही कुछ विदित हुआ। उनकी देखभाल करनेवाले नौकर मंचणा तक को कुछ भी पता नहीं।"
"सो यह स्पष्ट हुआ कि तुमने उनके बारे में समझने का प्रयास किया था।"
470 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन