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"क्यों भला!" "उन्हीं से पूछना होगा।" "सो वह?" "वही तो पता नहीं। खोज कर रहा हूँ। "नाम!"
"अब जो बता दिया, सो भी नहीं बताना चाहिए था। आपकी बातों में आकर अनजाने ही मुंह से निकल गया।"
"गाँव का नाम बता दिया। क्या तुमने समझा कि वहाँ आदमी भेजकर हम पता नहीं लगा सकेंगी?"
"हाँ, गाँव का नाम बताकर मैंने भूल की।" ।
"कोई भूल नहीं की। तुम जो कुछ जानते हो, सब बताओ। हम राजमहल से सहायता देकर पता लगाएँगे।"
__ "मैं कृतज्ञ हूँ। एक बार मेरी माँ का दुःख दूर हो, यह सन्तुष्ट हो जाय तो मेरा जम सार्थक हो।"
"प्रयास करेंगे। अब मैं एक बात कहूँ?" "आज्ञा हो!'' "कल की इस स्पर्धा को छोड़ दो!" "दूसरी मूर्ति बनवाएँगी?" "यही ठीक न होगी, बेटा?" "आप और महाराज की हानि को होने देना उचित है?" "तुम्हें तो कोई हानि नहीं है न? तुम क्यों इसमें हठ करोगे?" 'आप लोगों का श्रेय ही राष्ट्र का श्रेय है। आपकी हानि राष्ट्र की हानि
"तो स्थपतिजी निश्चित रूप से कहते हैं न कि उसमें कोई दोष नहीं।"
"मैं भी तो कह रहा हूँ कि उसमें निश्चित रूप से दोष है। दो परस्पर विरोधी निर्णय हैं, इसीलिए यह सारी बात उठी है। इसके परिणाम की प्रतीक्षा करेंगे। देखें क्या होगा?"
"परिणाम कुछ भी हो, तुम दोनों में से एक को कष्ट होगा न! इस मन्दिर के निर्मापक का शरीर मन या तुम्हारा शरीर और मन कष्ट में पड़ेगा। यही इस घोषणा का परिणाम होगा।"
"इसके लिए क्या करें?" "इस स्पर्धा को छोड़ दो।" "इसके लिए एक ही मार्ग है। दोनों की दृष्टि से निर्दोष शिस्ता को खोजकर
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 473