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"हाँ।" "क्यों?"
"कुतूहलवश। ऐसी भव्य कल्पना करनेवाले स्थपति किस घराने के हैं, किस स्थान के हैं यह जानने का एक कुतूहल होने के कारण !"
"अपनी बात न बता सकनेवाले तुमको, दूसरों के बारे में जानने का क्या अधिकार है?"
"अपने निजी विषय में न बताने का एक कारण है।" "उन्हें भी उसी तरह का कारण हो सकता है।" "वह कारण आप जानती होंगी न?"
"एक दिन बताया था। नहीं, मैंने ही उनके मुँह से कहलवाया। उस दिन से वे एक बदले हुए व्यक्ति बन गये।"
"नो से दोन हैं?" "वे एक दु:खी जीव हैं।" "कहाँ के हैं?"
"तुम कहाँ के हो? तुम्हारे पिता कौन हैं ? माँ कौन हैं ? तुम यहाँ इस प्रतिष्ठा के समारम्भ के लिए आये हो या किसी दूसरे उद्देश्य से?"
"मेरा दूसरा उद्देश्य हो ही क्या सकता है ?" "तो तुम्हारे इस हठ का क्या कारण है?"
"वह एकमुखी नहीं है। के स्वीकार कर सकते थे न? इस तरह खुली जिज्ञासा की क्या आवश्यकता थी? मैं छोटा हूँ। अधिकारियों का बल नहीं है। मुझे डाँटकर हटाने का विचार क्यों नहीं हुआ?"
"यदि तुम यह प्रश्न करते हो, मैं एक दूसरा प्रश्न करूँगी। पहले इस मन्दिर के एक और स्थपति रहे। उनका चित्र स्वीकृत हुआ था। उस समय ये इश्वर आये। इनकी कल्पना में नवीनता भरी थी। इनका यह चित्र स्वीकृत कर इसी तरह मन्दिर का निर्माण करने के लिए उस स्थपति से कहा गया। उसका उत्तर था कि मेरे चित्र के अनुसार काम करने पर जब सहमति नहीं है, तो दूसरों के चित्र के अनुसार मैं कार्य क्यों करूँ, इस तरह विचार कर वे चले गये। उन्होंने यह समझकर कि यहाँ मेरा अपमान हुआ, उसका बदला लेने के लिए तो तुम्हें नहीं भेज दिया?"
___ ''मैं इस तरह किसी से प्रेरित होकर नहीं आया। मैं पहले ही बता चुका कि मैं एक अन्वेषण में लगा है।"
"यह सब सत्य है, ऐसा कैसे मानें? अपने बारे में अपना सम्पूर्ण विवरण दो तो तुम्हारी बात पर विश्वास करने-न करने पर विचार कर निर्णय करूँगी।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग सीन :: 471