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उसमें एक दूसरा ही विग्रह तैयार कराएँ।"
"मैं अकेली इस बात पर निर्णय कैसे करूँ?''
"स्थपतिजी से पूछ सकती हैं। सन्निधान को मेरी बात ठीक लगे तो स्थपति जी को सूचित कर सकती हैं। आदेश दे सकती हैं।"
"यह सब आदेश से होनेवाला कार्य नहीं। सन्तुष्ट मन से किया जानेवाला कार्य है। किसी भी तरह से कलाकार के स्वातन्त्र्य में हस्तक्षेप करना मेरा अभीष्ट नहीं है। सोचूंगी कि क्या करना होगा।"
"उनसे विचार-विनिमय करने के बाद भी, परीक्षा करने ही का निर्णय हो तो...?"
"इतनी तत्परता क्यों? वे सही बात को माननेवाले व्यक्ति हैं।"
"फिर भी कोई कलाकार अपने स्वाभिमान पर आघात हो, तो नहीं सह सकेगा।"
"उसके लिए क्या होना चाहिए?" "मुझे चन्दन की लकड़ी चाहिए।"
"जब आवश्यक हो तब तैयार रहेगी। चन्दन की लकड़ी के लिए चिन्ता करने की आयश्चयाता नहीं।"
वहाँ मौन छा गया। युवक कुछ कहने को तत्पर दिखाई दिया, पर चुप रहा। "और क्या कहना है?" "सन्निधान मुझे कुछ और न समझें।"
"अन्यथा लेने का कोई कारण नहीं। परन्तु, अप्रबुद्ध और वाचाल जन तरहतरह के अर्थों की कल्पना करेंगे। दो का झगड़ा तीसरे का लाभ, यह कहावत है न, अब यह क्यों? स्थपति से विचार करने के बाद ही आगे का निर्णय हो। तब तुम्हारे लिए निवास की जो व्यवस्था की है, वह ठीक है न?"
"खुरदरे पत्थर को स्वच्छ चिक्कण बनानेवाले हम सब जगह ठीक बना लेंगे। ऐसों के लिए यहां की व्यवस्था के बारे में आक्षेप ही क्या हो सकता है। तब तो..."
"अच्छा, अब तुम जा सकते हो।"
स्थपति से बातें हुईं, पर कोई सफलता नहीं मिली। हठ के साथ बात न करने पर भी तर्कबद्ध रीति से अपने निर्णय को न बदलकर, उसी को दुहराया।
दूसरे दिन प्रातःकाल इस परीक्षा का परिणाम देखने के लिए, जिज्ञासुओं की भीड़ मन्दिर के पास जमा हो गयी। प्रधानजी, दण्डनायक तथा अन्य अधिकारीगण शास्त्रज्ञ, उत्साही सब एकत्रित हो गये थे। भीड़ में तरह-तरह की बातें चल रही धीं। भीड़ में कौन किसकी सुने? ।
स्थपति और युवक का किसी से कोई सम्बन्ध न होने पर भी, इस जय-पराजय
474 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन