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सन्निधान शास्त्र-परिणत विमर्शक हैं। वे व्यक्ति को भूलकर कृति की विमर्शा कर सकती हैं। मैं विमर्शक नहीं हूँ। प्रथमतः मैं कृतिकार हूँ। शास्त्र से परिचित हूँ। फिर भी, दूसरों की कृति को जब देखता हूँ, तब अपनी कृति को सर्वश्रेष्ठ कहने की पूर्वग्रहपीड़ा से मुक्त नहीं भी हो सकता हूँ। अतएव मेरी राय यहाँ गौण है। इसका यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि इसके विषय में मेरी अच्छी राय नहीं। यहाँ मेरी राय उचित नहीं इस दृष्टि से यह बात कह रहा हूँ।" स्थपति ने कहा।
"अभी वह युवक क्या कर रहा है?" शान्तलदेवी ने प्रश्न किया।
"जहाँ मैं काम करता हूँ, वहाँ उस मूर्ति का परिशीलन-परीक्षण कार्य कर रहा है।" स्थपति बोले।
"जब वह कहता है कि इसका परिशीलन करना होगा तो उसे लगा होगा कि उसमें कुछ कमी है। है न?" शान्तलदेवी ने सवाल किया।
"यह मुझे ज्ञात नहीं कि उसे क्या लगा होगा।" "आपको ऐसा कभी लगा है कि हमारें कोई न्यनता रह गयी है?"
"कुछ भी तो नहीं। वास्तव में देव-मूर्ति, प्रतिष्ठित होनेवाली मूर्ति है। ऐसी स्थिति को जानते हुए प्रतिमा-शास्त्र के सूत्रों के अनुसार ही इसे बनाते हैं।"
"उसे यह जानकारी देकर इस प्रसंग को यहीं समाप्त कर दिया जाय तो क्या ठीक नहीं होगा?"
"यौवन में कई तरह की सनक उठती है। कभी-कभी वह बड़ों को छेड़ने की सी भी होती है। परन्तु बड़ों को ऐसी बातों का विचार नहीं करना चाहिए। उदासीन रहें तो पीछे उनका वह पागलपन, वह सनक अपने आप कम हो जाती है; तब वे अपने आप घुम हो रहते हैं। ऐसा न करके बड़े लोग यदि उनका सामना करने पर तुल जाएँ तो उनका वह उत्साह कई टेढ़े-मेढ़े मार्गों में बहकर मनमाना हो सकता है।"
"तो आपका कहना है कि हम उस सम्बन्ध में उस युवक की राय की प्रतीक्षा
करें?
"उसे कहने के लिए कुछ नहीं रहेगा। इसलिए प्रतीक्षा करें।" "तो तब तक हमें यहाँ रहना होगा?"
"आवश्यकता नहीं! आदेश हो लो मैं उसे राजमहल में ही ले आऊँगा। नहीं..."
"यों कोजिएगा। परिशीलन के बाद आप स्वयं उससे विचार-विनिमय करें। उसे सन्तुष्ट करें।"
"वह मुझसे विचार-विनिमय करे तो ठीक है। वह सन्निधान के समक्ष हो निवेदन करने की बात कहे तो..."
पट्टपहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 461