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युवक ने जैसा कहा - इसका उद्देश्य न मुझे अपमानित करना है या न कालिख पोतने का है, यह मैं जानता हूँ। इसलिए तिरुवरंगदासजी के इस आरोप को मैं नहीं मानता हूँ। यह कोई वाक्यार्थ की स्पर्धा नहीं। कला की विमर्शा बहुत सूक्ष्म विषय है। उसके अनन्त रूप हैं। इस बात के कहने पर वे मेरी बातों का अन्यार्थ न करें - यह मेरी विनती है। इन्होंने जो बातें कहीं, उनमें से एक बात मेरे लिए भी मान्य है। शंका जब भी हो, उसका परिहार हो जाना चाहिए। उस परिहार के फलस्वरूप यह युवक तब दण्डनीय होगा, जब उसके परीक्षण और परिशीलन का परिणाम झूठा प्रमाणित होगा । दण्डविधान भी उसने सूचित किया है। वह कलाकार की रीति और नीति है। मैं भी कलाकार हूँ। मेरे लिए भी वह रीतिनीति मान्य है। उसके कहे अनुसार पत्थर में दोष हो तो मैं भी वही दण्ड भोगूँगा । उसके लिए सहर्ष स्वागत है। मेरे लिए जीवन में कोई आशा-आकांक्षा नहीं। मैं अनाम हूँ। ऐसे में मुझे कुछ भी नहीं लगेगा। इसलिए मानापमान का, कलंकसो लगनेवाली किसी भी बात का मुझे डर नहीं। मैं सार्वजनिक परीक्षण के लिए तैयार हूँ। 'युवक! अब इस शिला का दोष प्रमाणित करने का काम तुम्हारा है। मैं और तुम दोनों दण्ड विधान से आबद्ध हैं।" स्थपति ने स्पष्ट बता दिया। " स्वीकार है!"
शान्तलदेवी अब तक मौन रहीं। अब उन्होंने कहा, "मैं इस विषय में प्रवेश करना ही नहीं चाहती थी। परिशीलन का प्रश्न इसलिए नहीं उठा कि किसकी भूल है, किसकी नहीं हैं। उसे उस दृष्टि से परिशीलन कर एक की विजय और दूसरे की पराजय को घोषित करने के लिए नहीं! इस दृष्टि से जय-पराजय का विवेचन करना उचित न होगा। हम जो भी काम करते हैं, उसे किसी एक निर्धारित रीति को आधार मानकर ही करते हैं। एक परम्परागत परिपाटी का अनुसरण हम भलाई की आकांक्षा से करते आये हैं। उस परम्परा की पृष्ठभूमि में दोषयुक्त शिला से विग्रह को, विशेषकर भगवान् की मूर्ति को नहीं बनाना चाहिए। क्योंकि हम उस विग्रह में प्राण-प्रतिष्ठा करने की एक शास्त्रोक्त परम्परा को विकसित करते आये हैं। इसलिए दोषपूर्ण शिला में मूर्ति बनाकर स्थापना करके प्राण-प्रतिष्ठा करेंगे तो यह रुग्ण जीवन की तरह होगा । मानव अपनी बुद्धिशक्ति की पहुँच जहाँ तक हैं, वहाँ तक जाकर, वस्तुस्थिति को समझकर एक निर्णय पर पहुँचता है, उसके आधार पर कार्य करता है। फिर भी उसमें छोटी-बड़ी त्रुटियाँ रह ही जाती हैं। ऐसे सन्दर्भ में वह च्युति बुद्धिपूर्वक नहीं हुई होती है, अन्यान्य कारणों से होती है। ऐसी सब बातें क्षम्य हैं। हम जैन हैं। हिंसा हमारे लिए वर्ज्य है। परन्तु जब हम चलते-फिरते हैं, तब न दिख सकने वाले छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों की हिंसा होना अनिवार्य हैं। ऐसे कर्मों के लिए हमने गमन-प्रायश्चित्त का व्रत आचरण
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन : 465