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मिलता था। अब तो उनका दर्शन भी दुर्लभ हो गया है। ऐसी स्थिति में मार्गदर्शन पाना हो तो कैसे?"
"इच्छा हो तो पाठशाला जाकर पढ़ सकती हो न?" "मैं रानी, सामान्य लोगों के साथ बैठकर सीखू?"
"सीखने की अभिलाषा हो तो साथ बैठकर सीखनेवालों की प्रधानता नहीं, सीखने की अभिलाषा प्रधान होती है। मेरे भाई भी तुम्हारी ही तरह के विचार रखते थे। प्रारम्भ में अपने जीवन को ही व्यर्थ गंवाया। बाद में जब उन्हें अपना दोष पता चला तो पछताने लगे। हड़बड़ी में जो काम कर डाला, उसके कारण उनका सारा जीवन ही नष्ट हो गया।"
"क्या हुआ?'' इतने में घण्टी का स्वर सुनाई दिया।
"अभी समय नहीं, फिर कभी बताऊँगा। अभी मन्त्रालोचना सभा में जाना है।" कहकर बिट्टिदेव उठे। रानी भी उठ खड़ी हुई। बिट्टिदेव ने अन्दर की घण्टी बजायी। पट खुले। वह मन्त्रणालय की ओर चले गये।
वास्तव में रानी लक्ष्मीदेवी का मन कुछ उलझन में फंस गया। उसे लगने लगा कि वह जिस वातावरण में पली-बढ़ी, यहाँ उससे भिन्न परिस्थितियाँ हैं। अपने प्रारम्भिक जीवन के वातावरण के अनुसार ताले जीवन के कुछ सालों की पाल्पना कर रखी थी। यहाँ जीवन के दूसरे ही मूल्य थे। परन्तु इनकी श्रेष्ठता और औचित्य का आधार उसके मन में स्पष्ट न था। बताते हैं कि राजमहल के द्वारपाल से लेकर पट्टमहादेवी तक सभी लोगों से सीखने के योग्य कुछ-न-कुछ बातें हैं । ऐसी स्थिति में उसके मन में उथल-पुथल होना स्वाभाविक ही था। उसके पालक-पिता यही कहते थे कि 'तुम्हारे जीवन को सुखी बनाने के लिए मार्गदर्शन करूँगा, जैसा मैं कहूँ, वैसा तुम करती चलो?' परन्तु देखती है कि उनका दर्शाया मार्ग यहाँ संगत नहीं लगता । वह सोचने लगी कि यहाँ की रीति-नीति के अनुसार न चले तो पानी से बाहर फेंक दी गयी मछली की-सी दशा हो जाएगी। सन्निधान के कहे अनुसार दिन के समय पाठशाला जाऊँ? जाऊँ तो लेकिन सबके साथ बैठकर सीखना ठीक होगा? अपने लिए कोई दूसरी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? इसके लिए यदि पट्टमहादेवी न मानें तो? ऐसे समय में मेरे पिता यहाँ होते...? परन्तु, जैसी बातें हो रही हैं, वे यहाँ कैसे आएंगे? इन विचारों ने उसे अत्यन्त विकल कर दिया।
'प्रतिमा--भंगिमा का कार्य समाप्त हो जाने के पश्चात् स्थपति द्वारा चित्रित उन चित्रों को लेकर शान्ति के साथ बैठकर शान्तलदेवी एक-एक चित्र का सूक्ष्मता से निरीक्षण करने लगी। चित्रित करते समय पट्टमहादेवी ने जो आदेश दिया था, उसका पूर्णतया पालन स्थपत्ति ने किया था। कोई भी चित्र ऐसा नहीं था जिससे यह लगता हो कि अमुक भंगिमा पट्टमहादेवी की ही है। चित्र-रचना वास्तव में
414 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन