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गया। बनना हो तो ऐसे मन्दिर का धर्मदर्शी बनना चाहिए। कहाँ यह भव्य मन्दिर
और कहाँ वह लक्ष्मीनारायण मन्दिर? पोयसल महाराज का ससुर बनकर यदि मुझे यहाँ का पद न मिला तो मेरा जीवित रहना सार्थक होगा? श्रीआचार्यजी का शिष्य बनकर भी क्या लाभ? तिरुमलाई से कुछ बड़े-बड़े उद्देश्यों को लेकर मेरा यहाँ आना भी किसलिए? चाहे कुछ भी हो, मुझे तो यहाँ का धर्मदर्शी बनना ही होगा। यह पद पाने के लिए एक ही रास्ता है। अपनी आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए लक्ष्मीदेवी को एक अस्त्र बनाकर उसका उपयोग करना ही होगा। पट्टमहादेवी के बारे में उसके मन पर जो छाप पड़ी है, उसे खण्डित करना होगा। मुझे जब पहली बार देखा, तब तुरन्त ही उसके मन में मेरे विषय में अच्छी सय नहीं बनी, कहती हैं। क्या उसका कथन वेद है? उस बूढ़े आचार्य को तो लौकिक ज्ञान ही नहीं है। राजा ने फूलमाला पहनायी। आराम से जीवन-यापन होता है। अच्छा आश्रय मिला है। पर्याप्त धन मिला है। राजा को भी एक तरह का पागलपन सवार हो गया है। मन्दिर के निर्माण पर पागल की तरह धन का व्यय कर रहे हैं। इसलिए कुछ आगा-पीछा देखे बिना, लौकिक ज्ञान शून्य होकर इधर-उधर के लोगों की बातों में आकर मुझे तुच्छ समझ बैठे हैं? मुझे वेलापुरी को और न आने का कड़ा आरा भिजवा दिया: चांद होले तो मुझे यह अवसर भी न मिलता। इसीलिए मैंने जिस भगवान् को माना, उन्होंने उसी को उत्तर की ओर भेज दिया! इस अवसर को यदि मैं खो हूँ तो मेरे लिए आगे अन्धकार हो अन्धकार...आदि-आदि सोचता हुआ वह घूमता हुआ वहाँ पहुँचा जहाँ शिल्पी काम कर रहे थे। पोजन का समय था, शिल्पी काम बन्द कर भोजन करने चले गये थे।
राजमहल का एक नौकर साथ था, इसलिए राजमहल के द्वार से लेकर इधरउधर घूमने तक तिरुवरंगदास को कोई कष्ट नहीं हुआ। वह शिल्पियों द्वारा निर्मित उन नारी-मूर्तियों को देखकर चकित रह गया। उन मूर्तियों को दूर से देखा, निकट से देखा। उन मूर्तियों के कपोल, कुच, कटि, जाधन आदि अंगप्रत्यंगों पर हाथ फेरा। 'सुन्दर, अति सुन्दर' उसके मुँह से निकला। उसे इन मूर्तियों के सौन्दर्य को देखते रहने के इस आनन्द में भोजन तक न रुचा। एक स्थान से दूसरे स्थान पर गया। तीर चलाने के लिए लक्ष्य साधकर खड़ी प्रतिमा के चूचक की ओर देखते रहने से उसे जाने क्या भान होने लगा। बन्दर, बिच्छू तक उसकी आन्तरिक इच्छा पूरी कर रहे थे-नटखट अन्दर और डंक मारनेवाले बिच्छू दोनों को अपनी कृतज्ञता प्रकट की। अवलोकन करते-करते जब यह स्थपति के शिविर में आया तो वहाँ एक युवा को मूल मूर्ति की परीक्षा करते देखा। वह अपनी उँगलियों से मूर्ति के अंग-प्रत्यंग को ठोंक-ठोंककर देख रहा
448 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन