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"मैंने अपनी राय अता दी है। महासन्निधान की जैसो इच्छा होगी, वैसा होगा।"
"महासन्निधान से स्वीकृत कराने का काम भी आपका ही रहा।" ।
"आपको सलाह ठीक ऊँचे तो उदयादित्यरस और हमारे छोटे दण्डनायक इस बात को महासन्निधान की सम्पत्ति के लिए प्रस्तुत कर सकते हैं।"
"स्थपतिजी की राय बहुत ठीक है। इसके निर्माण की प्रेरणा महासन्निधान से मिली है। उसे रूपित करनेवाली पट्टमहादेवीजी हैं। इसलिए उन दोनों के नाम मन्दिर के साथ स्थायी रहें, यह बहुत ही उचित है। इसलिए मैं स्वयं महासन्निधान और मन्त्रियों के साथ बातचीत करूँगा।" उदयादित्य ने कहा।
"केवल स्वीकृति ही नहीं लेना है, मेरी सुविधा के लिए एक बार राजसभा को भी बिठाना चाहिए। मैं उसका चित्र बना लूँगा।"
"उसकी कल्पना आप नहीं कर सकेंगे?"
"कल्पना तो की जा सकती है। फिर भी, एक बार राजसभा को देखना होगा। मैंने तो कभी किसी राजसभा को देखा ही नहीं।"
"नव वर्षारम्भ के दिन निमित्त-मात्र के लिए राजसभा बैठेगी। आप निमन्त्रित किये जाएंगे, इतना पर्याप्त होगा। इसके लिए महासन्निधान तक जाने की आवश्यकता नहीं रहेगा।"
"जैसी इच्छा!''
"इस युवक के लिए ठहरने की व्यवस्था?" शान्तलदेवी ने उठते हुए पूछा। और लोग भी उठ खड़े हुए।
"मेरे साथ रह सकता है।" "यह मान ले तो हो सकता है।" शान्तलदेवी ने कहा। "इतना स्थान है। अन्यत्र कहीं भी रह लूंगा।" युवक ने कहा।
"भीड़ बहुत है; मेरे साथ रहो बेटा!" स्थपति ने कहा। युवक ने तुरन्त उत्तर नहीं दिया।
"तो एक काम करेंगे। अन्यत्र व्यवस्था होने तक यह युवक मेरे पिताजी के पास ठहरे।" शान्तलदेवी ने कहा।
बाद में शान्तलदेवी ने सूचित किया, "अभी जितना काम बचा है, सब चैत सुदी तीज बृहस्पतिवार तक समाप्त कर देना चाहिए।"
. "मैरा एक निवेदन है। कोई अन्यथा न लें। इस युवक को मूल विग्रह के परीक्षण के लिए अनुमति दी गयी, और उसके लिए उसे समय भी दे दिया गया ! इस तरह के परीक्षण करनेवाले उस युवक की योग्यता और क्षमता कितनी है, इस बात की परीक्षा कर ली है या नहीं? कोई अपरिचित आए और कुछ कहे तो तुरन्त
456 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन