Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 3
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 453
________________ "अर्थात् स्थपति से भी भूल हो सकती है। यही न?" "हाँ!" "अर्थात् उस लड़के की राय पूछे-जानें, यही न?" "पूछने में कुछ भी अन्यथा नहीं! स्थपतिजी को...?" "राय राय है। सत्य चाहे किसी के मुंह से निकले वह सत्य ही होगा।" स्थपति ने कहा। शान्तलदेवी ने युवक की ओर देखा। उस युवक ने एक बार शान्तलदेवी की ओर, फिर स्थपति की ओर देखा। और तुरन्त कोई उत्तर नहीं दिया। बाद में बड़े विनीत भाव से और दृढ़ता के साथ बताया, "परीक्षण करने के लिए मुझे कुछ समय दीजिएगा। मैंने परीक्षण केवल अपने लिए ही करना चाहा था। परन्तु बात अब राजमहल तक पहुँच ही गयी है तो शीघ्रता में मुझे कोई बात नहीं कहनी है। कृपा करके कल दोपहर तक मुझे समय देने का अनुग्रह करें।" "वही हो बेटा!" शान्तलदेवी ने कहा। तुरन्त किसी ने कोई बात नहीं की। स्थपति ने कहा, ''मेरी एक विनती है।' "कहिए! आपको संकोच करने की क्या आवश्यकता है?" "ऐसा कुछ नहीं। मन्दिर के प्रमुख द्वार पर मैंने जो स्थान खाली रखा है, वहाँ क्या सजाएँ, यह अभी तक निर्णीत नहीं हुआ है। अब सन्निधान मेरी सलाह को मानकर अनुमति देदें तो उसे बनाकर वहाँ सजा सकता हूँ।" "क्या सजाने का विचार है?" "महासन्निधान और पट्टमहादेवी साथ विराजमान रहें और राजसभा हो, इसे सांकेतिक रूप से चित्रित कर वहाँ सजाने की अभिलाषा है। पहले भी यह सूचित किया था।" "न न, यह सब नहीं चाहिए। हम मानवों का संकेल मन्दिर में क्यों रहे?" "अभी सब निर्मित सुन्दर शिल्प-मूर्तियों पट्टमहादेवीजी की सहायता से ही बनी हैं न? उन्हीं के सांकेतिक रूप ही है न?" "नहीं, इसीलिए मैंने भिन्न-भिन्न मुख-भंगियों के होने की बात कही थी। वह केवल कल्पित हैं। भंगिमा की स्पष्ट कल्पना आपकी हो, इसलिए मैंने गिमाएँ दी।" "आपने जो भंगिमाएँ दी, वह केवल शारीरिक ही नहीं थी, भावपूर्ण भी थी।" ___ "हो सकता है, वह सब आपको कल्पना के लिए सहायक मात्र रहा हो। उससे जो चित्र बने हैं, वे केवल कल्पित चित्र है, प्रतिकृति नहीं।" "एक सीमा तक यह राय ठीक हो सकती है। फिर भी मेरी इस राय को स्वीकृति प्रदान करें।" पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 455

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