Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 3
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 445
________________ हो गया हूँ। मुझे यहाँ से हटाकर कहीं दूर भिजवा देंगे। मुझे कोई अधिकार नहीं है। ऐसी दशा में मैं तुम्हारी डि- परिस्थिति में में सहायता करने भी नहीं पहुंच सकूँगा। इसलिए तुम्हें अपनी भलाई को सोचने के लिए अभी से प्रयत्न करना चाहिए। अपनी भलाई अपने हाथ में है। भ्रम में पड़कर अपने भविष्य को अपने ही हाथ से नष्ट नहीं कर देना। मैं जो कुछ कहता हूँ उसे शान्त मन से बैठकर विचार कर देखो और निर्णय करो। मैं यह हल नहीं करता कि तुम मेरी बात मानो ही। मेरे लिए तुम्हारे हित को छोड़कर दूसरी कोई चिन्ता नहीं। इसलिए मेरी बातों और धारणाओं के बारे में दूसरों की तरह और ही अर्थ कल्पित करोगी तो मेरे लिए असह्य दुःख होगा।" लक्ष्मीदेवी का अबोध मन दुविधा में पड़ गया। उसने कुछ नहीं कहा। तिरुवरंगदास ने समझा कि उसकी बातों का प्रभाव उसके मन पर हुआ है, इसलिए और अधिक कहना उचित नहीं। यह समझकर उसने विदा लेनी चाही। जाते हुए कहा, "यह मेरा सुझाव मात्र है; अब मैं चलता हूँ।" कहकर वह बाहर की ओर बढ़ गया। ___ लक्ष्मीदेवी का मन विकट द्वन्द्व में फंस गया था। वह मन-ही-मन सोचने लगी। कोई उनका अपना इष्टदेव तो है नहीं, जिस पर इतनी भक्ति श्रद्धा दिखाएँगे! यदि यों श्रद्धा भक्ति अन्य देवता पर दिखाएँगे तो अपना इष्टदेव क्रोध न करेगा? इतना भी ज्ञान उनमें नहीं है? यदि इतना भी नहीं समझते हों तो उनकी श्रद्धा-भक्ति यह सब केवल दिखावा है। जैसा पिताजी कहते हैं, यह सब केवल दिखावा ही होना चाहिए। इस सारे दिखावे का कोई-न-कोई लक्ष्य होना चाहिए। फिर भी पट्टमहादेवी बिलकुल नि:स्वार्थजीवी हैं। उनका कोई स्वार्थ ही नहीं। सभी प्रसंगों में वे मेरा ही हित चाहती हैं-ऐसा ही व्यवहार करती रही हैं। सम्पूर्ण जनता उनको चाहती है। इसके लिए कोई-न-कोई प्रबल कारण होना चाहिए। कुछ लोगों की आँखों में धूल झोंक सकते हैं, सभी की आँखों में धूल कैसे झोंकी जा सकती है? यों उसके मन में विचारों का आलोड़न-विलोड़न होता रहा। रानी लक्ष्मीदेवी के मन को बिलोड़कर वह वहाँ से निकला तो सीधे अपने आबास पर न जाकर मन्दिर की ओर गया । मन्दिर की परिक्रमा की और महाद्वार के सामने आकर ध्वजस्तम्भ की तरह खड़ा होकर मन्दिर को वीक्षक-दृष्टि से देखने लगा। उस मन्दिर के सौन्दर्य को और उसकी भव्यता को देखकर वह अपने को हो भूल पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग तीन :: 447

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