Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 3
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 448
________________ "क्षमा करें; हम सहमत नहीं। देखिए. इस भव्य मन्दिर और इसमें सजी हुई सुन्दर हजारों शिल्पमूर्तियां एवं कला-इस सबकी कल्पना कर प्रस्तर में रूपित करना हो तो केवल पेट भरने की कला मात्र जाननेवाले, एक प्रस्तर पर छेनी चलानेवाले व्यक्ति से असम्भव है। भगवान् और मानव के बीच सम्बन्ध कल्पित कर भगवान् के साक्षात्कार का आनन्द प्राप्त करना हो तो वैदिक वर्ग को सर्वज्ञ बनना होगा, - कि केवल ऐर पलने के लिए भाट, अन जाना!" "छोटे मुंह का लड़का और बातें इतनी लम्बी-चौड़ी!" "सच कहना हो तो छोटे मुंह वाले को यदि लम्बा भी हो जाना पड़े, तो कोई अनुचित नहीं; साँच को आँच नहीं, ऐसा मेरी माँ कहा करती है।" "तुम्हारे पिता कौन हैं?" "इस विषय से आपका क्या सम्बन्ध?" "तब तो तुम कलियुग के सत्यकाम हो।" "आपके मुंह से ऐसी छेड़खानी की अपेक्षा मुझे नहीं थी। क्षमा कीजिएगा। मैं कोई ऐसी पट्टी लगाकर नहीं आया हूँ। आप अपना काम देखिए।" "यह क्या? मैं समझ रहा था कि यह कोई योग्य युवक दिखता है। मगर तुम तो. बहुत बढ़-बड़ कर आतें कर रहे हो, डींग मारते हो। छोटे-बड़े का ख्याल तक न रखकर बातें बनाते जा रहे हो।" "यह आपसे नहीं सीखना है।" "अरे! किसने इसे अन्दर आने दिया? निकालो, बाहर करो इसे!" तिरुवरंगदास गरजा । इस गरज को सुनकर लोग इकट्ठे हो गये। इतने में स्थपति यहाँ आये। दूर से ही उन्होंने देख लिया था कि गड़बड़ की पूरी-पूरी सम्भावना है। आते ही उन्होंने कहा, "यहाँ इतने लोगों को यह भीड़ क्यों? आप लोग अपने-अपने काम पर जाइए।" तिरुवरंगदास ने कहा, "यह छोटा लड़का कहता है, अपना काम देखो।" "आप?" "मैं महाराज का ससुर हूँ।" "ओह ! रानी लक्ष्मीदेवीजी के पालक-पिता । रानीजी ने आपकी नियम-निष्ठा के बारे में बहुत कहा है। आपको देखने का सौभाग्य नहीं मिला था। ज्ञात हुआ कि आप कल ही यहाँ आये हैं। कुशल तो हैं ? बैठिए।" बड़ी सज्जनता से आदर के साथ स्थपति ने कहा। "मैं आपसे मिलने के लिए हो शिविर में आया था। आप तो देवलोक की ही कल्पना कर निर्मित करनेवाले देव-शिल्पी हैं। आपके सरल और अहंभावशून्य स्वभाव के बारे में पट्टमहादेवीजी एवं श्री आचार्यजी तथा अपनी बेटी के मुंह से 450 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तोन

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