Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 3
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 450
________________ "बैठो बेटा!" स्थपति ने बड़ी आत्मीयता से युवक से कहा। वह बैठ गया। "बड़े होने के नाते मैं दो बातें तुमसे कहूँ बेटा?" "आप जैसे प्राज्ञों की बात मानना हम जैसों के लिए धर्म है, आज्ञा हो!" "मत-भिन्नता होने पर भी बड़ों में विनीत होकर व्यवहार करना चाहिए।" "सभी के प्रति विनीत रहने का उपदेश माँ ने मुझे दिया है।" "ऐसी दशा में तुम्हें उनसे संयम के साथ व्यवहार करना चाहिए था।" "मैंने संयम से बातचीत की परन्तु उन्होंने मेरे वंश की बात को लेकर व्याय किया तो वह मुझसे सहा नहीं गया। ऐसी बात आपके लिए भी सह्य नहीं होगी न?" "मैं निर्वंश हूँ। अव: मुझे उसकी चिन्ता ही नहीं। तुम्हारी बात को मैं मानता हूँ फिर भी तुम्हें उनकी समर्थता की बात को लेकर, उनसे कहना ठीक न था।" "उनका प्रश्न ही अज्ञानियों जैसा था। मूलतः उनके प्रश्न ही मुझे ठीक नहीं लगे इसलिए उस समय मैंने ऐसा कह दिया। अब लगता है कि ऐसा नहीं कहना था। चाहें तो मैं उनसे क्षमा मांग लूंगा।" "ऐसी मानसिक प्रवृत्ति है न? वहीं पर्याप्त है। तुम्हारी बासचीत से पता पड़ा कि तुम शिल्पी हो। तुम यदि पहले से आसे तो तुमसे कुछ काम कराया जा सकता था।" "अब भी यदि कोई काम हो तो करने के लिए तैयार हूँ।" "देखेंगे, कल सुबह तुम मुझसे मिलोगे?" "हाँ, मिलूँगा।" "कहाँ रहते हो?" "अभी कहीं जगह नहीं बनायी।" "तुमने फिर यह क्यों कहा कि भोजन हो गया ?" "यहाँ आया। रास्ते में यगची में नहाया। उत्सव के लिए व्यवस्थित धर्मशाला में भोजन किया। इस ओर आया। सम्पूर्ण मन्दिर को देखा। फिर यहाँ सभी कार्यशालाओं को देखा। आपकी कार्यशाला में आया, यहाँ की मूर्ति को देख रहा था कि इतने में यह तिलकधारी आ धमके। शेष सब आप जानते ही हैं।" "तुम्हारा अन्य सामान?" "वह मेरी थैली में है। उस कोने में।" "इस मूर्ति को इतने ध्यान से क्यों देख रहे थे?" . "प्रतिष्ठित होनेवाली मूल मूर्ति यहीं है न? यदि यह सर्वलक्षण युक्त न हो 452 :: पट्टमहादेवो शान्तस्ला : भाग तीन

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