Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 3
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 444
________________ "अभी यह सब हो ही नहीं सकता। मुझे सन्निधान से एकान्त में मिल सकने का अवसर भी मिलेगा या नहीं, कह नहीं सकती।" "तो क्या सभी पुरानी रानियों ने मिलकर तुम्हें महाराज का संग अप्राप्य बना दिया है?" "पिताजी, यह आपसे सम्बन्धित विषय नहीं। ऐसा कुछ लगना हो तो सबसे पहले मुझे लगना चाहिए। जब मुझे स्वयं ऐसा अनुभव नहीं होता है, तब आपके मुँह से यह बात सुनकर आश्चर्य होता है। मुझे तो लगता है कि आपने सब जगह ऐसी ही बातें करके अपने बारे में सबके मन में दुर्भावना पैदा कर ली है।" "मैंने क्या किया, बेटी ? तुमने कहा कि सन्निधान से मिलने का अवसर नहीं मिलेगा। उसके लिए दूसरा क्या कारण हो सकता है? बेचारी रानियों को भी भूख लगेगी न? उनको भी तृप्ति मिलनी चाहिए न? तुम बिलकुल अबोध हो। तुम्हें यह सब पता होना और अधिक अनुभव होना चाहिए। अभी शायद तुम्हारा मन तुम्हारे घश में न है/कर, किन्हीं दूसरों के हाथ है। देखो बेटी, यदि तुम्हें सुख लेना हो तो तुम्हें अपना मन अपने वश में रखना होगा। अभी स्थापित होनेवाली यह किस भगवान् की मूर्सि है ?" "केशव की। "तुम्ही बताओ, तुम्हारी पट्टमहादेवी केशव की भक्त हैं ?" "नहीं।" "जो भक्त नहीं, उन्हें यहाँ ऊँचा स्थान क्यों हो?" "पिताजी, आपको पट्टमहादेवीजी के बारे में कुछ भी नहीं पता। यह मन्दिर भव्य-कृति है। इसे भव्य बनाने के लिए ये तपस्या कर रही हैं।" "छोड़ो बेटी, तुम्हारी बात सुन लोग हँसेंगे। अब तुम ही बताओ.-वे जैन जिसकी पूजा करते हैं, उस नग्न गोम्मटेश्वर की पूजा तुम जाकर करती हो?" "मुझसे उसे देखना तक सम्भव नहीं। उसके बारे में कुछ मत कहो।" "ऐसे भगवान की सेवा में यदि तुम्हें आगे बढ़ना हो तो वह मन शुद्ध रहेगा?" "मैं आगे बढंगी ही नहीं।" "तुम तो नहीं जाती हो। तुम परम वैष्णव भक्तिन हो। मैंने तुम्हें उसी तरह पाला है। परन्तु अपने स्वार्थ साधनेवाले, द्वेष करनेवाले लोग हँसते-हँसते अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेंगे। अब एक बात जान रखो। तुम विष्णुभक्त हो; जिन्होंने तुमसे विवाह किया, वह महानुभाव भी विष्णुभक्त हैं। यहाँ प्रतिष्ठित होनेवाले भगवान् केशव हैं। इसलिए यहाँ होनेवाले प्रत्येक धार्मिक कार्य में महाराज के साथ तुम्हें ही रहना होगा। दूसरों को अवसर नहीं देना चाहिए। अभी तुम यदि अपने स्थान को सुरक्षित नहीं कर सकीं सो तुम्हें न इधर की न उधर की, बना रखेंगे। मैं वृद्ध 446 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग सीन

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