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मन्दिर में उन्हें गौरव के साथ प्रवेश करने में कोई अड़चन न हो। इसके अतिरिक्त मन्दिर में प्रतिष्ठा के समय चमारों को प्रवेश की सुविधा हो, साथ ही ऐसी व्यवस्था रहे कि प्रत्येक वार्षिकोत्सव के समय उनके लिए मन्दिर - प्रवेश की सुविधा रहे। पवित्र अपवित्र के भेदभाव बिना संकोच या भय के बिना प्रवेश मिले, ऐसी व्यवस्था रहे। अपवित्र को पवित्र बनाने की मन्त्रशक्ति जिसने पायी है, ऐसे किसी को अपवित्रता से डरना नहीं चाहिए।' आचार्यजी ने यह सन्देश अपने शिष्य के द्वारा भेज दिया। और अपनी यात्रा आरम्भ करने के मुहूर्त आदि की भी जानकारी दे दी। तदनुसार दशमी के दिन उन्होंने यात्रा प्रारम्भ कर दी थी। परन्तु तिरुवरंगदास के विषय का कहीं कोई उल्लेख तक नहीं था ।
आचार्यजी के न आ पाने की सूचना से उत्साह कुछ कम अवश्य हुआ । फिर भी, कार्य तो रुक नहीं सकता था। कोई व्यवस्थीत रु थी। परन्तु इस समाचार को फैलने नहीं दिया। सन्देशवाहक शिष्य को भी आदेश दिया गया कि सूचना को गुप्त रखे। चौदस को लक्ष्मीदेवी के पालक-1 क-पिता तिरुवरंगदास का आगमन हुआ। वह सीधे राजमहल गये। वहाँ का द्वार-रक्षक उनसे परिचित नहीं था। कौन... क्या... आदि सब परिचय द्वारपाल को देकर प्रवेश प्राप्त करते-करते वह थक गया। यह प्रवेश असम्भव था यदि राजमहल के अन्दर से रेविमय्या बाहर न निकला होता। उसके माध्यम से तिरुवरंगदास को अन्दर जाना आसान हो गया। पिता के आने पर रानी लक्ष्मीदेवी के आनन्द की सीमा न रही। मंचिअरस दण्डनाथों के लिए बने निवासों में से एक में रह रहे थे। इसलिए लक्ष्मीदेवी के लिए यह सम्भव न हो सका कि पिता को राजमहल में ही ठहरावें । लक्ष्मीदेवी ने पिता को राजमहल में रखना चाहा, प्रयास भी किया किन्तु विफल हो गयी। अपने बन्धुबान्धवों के आवासों में ही कहीं पर ठहरने की व्यवस्था करने का निर्णय किया जा सकता है। इसी सोच-विचार में अन्ततः अपने ठहरने के लिए स्वयं तिरुषरंगदास को ही निश्चय करना पड़ा। परिणामतः उसने बता दिया कि उसके लिए अलग निवास की व्यवस्था की जाय। वैसे ही उसके लिए अलग व्यवस्था हुई। वह आचार्यजी की आज्ञा के बिना स्वयं अपनी इच्छा से आया था, इसलिए उसे केवल एक अतिथि बनकर ही रहना पड़ा। वहाँ के कार्यकलापों में किसी भी तरह की सलाह सुझाव तक नहीं दे सकता था। उसके लिए केवल इस बात की सुविधा थी कि वह जब चाहे तब अपनी बेटी से मिलने के लिए राजमहल में आ-जा सकता था। यह सुविधा मंचिअरस और मारसिंगय्याजी दोनों को रही। आचार्यजी ने उसे बेलापुरी जाने की अनुमति नहीं दी, इस वजह से वह अन्दर-ही-अन्दर जल रहा था। इसलिए वह पता नहीं क्या-क्या करने का निर्णय कर, आचार्यजी के उत्तर
444 पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन