________________
है। मेरे इस पागलपन से आपको कुछ उलझन हुई हो तो मुझे क्षमा करें।" स्थपति ने विनीत भाव से कहा।
___ "ऐसा कुछ नहीं। इससे अनेक बातों की जानकारी मिली।" कहकर लक्ष्मीदेवी पालकी पर चढ़ गयी, राजमहल में जा पहुंची।
रात के भोजन के समय शान्तलदेवी उपस्थित रहीं। मंचि दण्डनाथ, रानियाँ बम्मलदेवी और राजलदेवी, लक्ष्मीदेवी, महाराज-ये सब रात को भोजन करने वाले थे। सूर्यास्त के पहले ही भोजन कर चुकने के कारण शान्तलदेवी साथ रहने के उद्देश्य से वहाँ उपस्थित रहीं। उन लोगों में कुछ इधर-उधर की बातें चलती रहीं। वास्तव में रानी लक्ष्मीदेवी और पमहादेवी, दोनों ने उन्हें उनके आने के बाद, यहीं पहलो बार देखा था। इसलिए दर तक कुशल-प्रश्न होत रहे। बिट्टिदेव लगभग मौन ही भोजन में लगे रहे।
बीच में शान्तलदेवी ने मंचि दण्डनाथ से पूछा-''चालुक्यों की क्या सूचना
"सुना कि ताबड़तोड़ युद्ध की तैयारियों हो रही हैं। अबकी बार युद्ध में मेरा सिर उड़ाने की बात चल रही है, यह सुनने में आया। कहते सुना कि स्वामी-द्रोहियों के प्राणहरण करनेवाले चलिके नायक-जैसे दण्डनायक के होते हुए भी पोय्सलों ने इस स्वामिद्रोही को आश्रय कैसे दिया, यह उनकी समझ में नहीं आया।"
यह सुन बिट्टिदेव ने कुछ आविष्ट होकर कहा, "चे इस बात को पूछने का अधिकार ही खो चुके हैं, ऐसी बात उनके मुंह से कैसे निकली, यही समझ में नहीं आता। जिन्होंने उन पर विश्वास किया उनके प्रति उन्होंने क्या विश्वास रखा?"
"अगर अपनी-अपनी भूल पहचान लें और उसे गौरव के साथ स्वीकार कर लें तो वह रीति ही अलग है। अपनी भूल दूसरों पर थोपकर अपने को निर्लिप्त बताने वाले ऐसे ही होते हैं, भेडियों की तरह।" शान्तलदेवी ने कहा।
"तो क्या युद्ध अवश्यम्भावी है ?' घबराकर लक्ष्मीदेवी ने पूछा।
"इतना शीघ्र नहीं होगा। किसी-न-किसी तरह पोयसलों को समूल नष्ट करने की इच्छा से वहाँ की प्रचण्डता से युद्ध की तैयारियाँ हो रही हैं। कम-से-कम छ: माह लगेंगे, यदि ऐसा आक्रमण करना हो तो।" मंचि दण्डनाथ ने कहा।
"यदि इतना समय हो तो हम ही उन्हें छका सकते हैं। अभी हमने जिस
पट्टपहादेवी शान्तला : भाग तोन :: 441