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चारों ओर से देख लें; चित्रों के साथ मिलान कर लें। बाद में हाल में रूपित चित्रों ने किस तरह रूप धारण किया है, इसका परिशीलन कर सकती हैं।"
"ठीक है, प्रयास करती हूँ।" लक्ष्मीदेवी ने कहा।
स्थपति आगे बढ़े, रानी ने अनुसरण किया। पीछे रेविमय्या और चट्टला ने उनका अनुसरण किया। मन्दिर के चारों और चक्कर लगाकर आने के बाद स्थपति ने पूछा, "जिन चित्रों को देखा था, उनके अनुसार ही हैं, या कहीं कोई अन्तर भी है? या सब ठीक जंचा...?"
"आपकी और पट्टमहादेवीजी की जब प्रतिभा लगी है तो समर्पक होना ही चाहिए। और फिर, परिशीलन कर इन कृतियों पर राय देना हमसे सम्भव नहीं। इस विषय का हमें कुछ विशेष ज्ञान नहीं।"
"आपकी इस सज्जनतापूर्ण बात के लिए मैं कृतज्ञ हूँ। हमें और पट्टमहादेवीजी के लिए प्रतिदिन देखते रहने के कारण, इनमें अन्तर ही दिखाई नहीं पड़ता। आप पहली बार देख रही हैं, अत: अन्तर हो या त्रुटियाँ हों तो आपको शीघ्र दिखाई पड़ना अधिक सम्भव है। इसलिए बताने पर बड़ा उपकार होगा।"
रानी लक्ष्मीदेवी सोचती रही। दो-एक क्षण बाद कहा, "नाट्य सरस्वती का मुख चित्र में बाल्यकालीन लगता था। उसमें यहाँ कुछ प्रौढ़ता-सी लगती
"सच है, आपकी राय ठीक है। इन बातों पर ध्यानपूर्वक वीक्षण आपने किया है, इसके लिए यह आपकी राय ही प्रमाण है। इससे अधिक प्रमाण की आवश्यकता नहीं।"
"ऐसा क्यों?"
"उसके लिए कारण है।" कहकर स्थपति ने इस सम्बन्ध में जो बातचीत हुई थी, उन सारी बातों और क्रियाओं को समझाया।"
"तो अब यह संगीत-नाट्य सरस्वती बनी।" "हाँ111 "तो इसमें स्वर निकलते हैं ?" "सुनेंगी?" "हाँ"
दोनों फिर उत्तर द्वार की ओर गये। स्थपति ने धीरे से सरस्वती के विग्रह के भिन्न-भिन्न भागों पर अपने हाथ की छोटी छेनी से ताड़न किया। शुद्ध सातों स्वरों को निकलते देख वह रोमांचित हो उठी। बोली, ''मैंने सोचा भी नहीं था कि यह सब प्रस्तर में होना सम्भव हो सकता है।"
"सम्भव बनाने की निष्ठापूर्ण अभिलाषा हो तो साधा जा सकता है।"
436 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन