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"वह मेरा निजी विषय है। मैं बताना नहीं चाहता। आप भी इस पर बल न दें।"
"आपकी इच्छा। अब आगे..."
"शिल्पियों के शिविर देख आवें। वहाँ कुछ मूर्तियाँ रूपित हो रही हैं।" कहकर उस ओर बढ़ने लगे। शेष लोग भी उधर उनके पीछे चलने लगे।
___ पहले के रूपित चित्र तथा शान्तलदेवी ने जो प्रतिमा-भंगियाँ दी थीं तब के चित्र सभी कृतियों में रूपित हुए थे शिविरों में। सभी शिविरों में हो आये। अन्त में स्थपति के शिविर में आये तो लक्ष्मीदेवी ने कहा, "इन सभी चित्रों की कल्पना आपकी है तो आपकी कल्पना की सामर्थ्य का अनुमान ही हम नहीं कर सकतीं। आपने तो लगता है, विश्व-मोहिनियों की कल्पना कर डाली!"
"कुछ कल्पित हैं। परन्तु उनमें जो सजीव लगते हैं, वे सब दूसरों की दी हुई प्रतिमा-भंगियों का फल है।"
"प्रतिमा-भंगी का अर्थ?"
"प्रतिमा-भंगी देने में निष्णात व्यक्ति उसी भंगी में स्थिर रूप से हमारे सामने खड़े होंगे। हम यथावत् उस भंगी का चित्र बना लेते हैं। इस तरह चित्रित चित्र ही बाद में पूर्ण शिल्पाकृति बनता है।"
__ "तो सम्पूर्ण चित्र के तैयार हो जाने सक उसी भंगी में ज्यों-का-त्यों रहना पड़ेगा?"
"नहीं तो सच्चा चित्र बनेगा कैसे?" "फिर भंगिमा के साथ भाव भी हैं न?"
"हाँ, जब भावयुक्त हो तभी वह सजीव बनता है। भावपूर्ण भंगिमा चित्र में सजीवता लाती है।"
"मतलब यह कि अंग-अंग में भाव का संचार हो जाता है, यही आपका तात्पर्य है?"
"हाँ तो, इसी में कला की शक्ति निहित है।" "तो क्या प्रतिमा-भंगी देनेवाले इन भावों से युक्त हो खड़े रहते हैं ?" "हाँ!"
"तब तो उन्हें इस तरह भावाविष्ट हो रहने के लिए ऐसा कोई सन्निवेश ही नहीं रहता। हमारे अन्तरंग पर प्रभाव डाल सके, ऐसी घटना के अभाव में भाव कैसे उत्पन्न हो सकता है?"
"वही तो कला है। सबकुछ की कल्पना मन में करके भाव उत्पन्न कर उसे भंगिमा में भरना होता है।"
"अर्थात् उनमें वास्तव में भाव की अनुभूति नहीं होती।"
438 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन