Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 3
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 432
________________ छलकना भोंडे प्रदर्शन का प्रतीक है। या हमारा वह व्यवहार उस छलकने का प्रतीक है। तुमने आचार्यजी को देखा है न?" "हाँ" "वे कैसे हैं ?" "बहुत बड़े ज्ञानी और देवांश सम्भूत हैं।" "वे भी अपने धर्म के लांछन (चिह्न)धारण करते हैं। उसी तरह उनके शिष्य और तुम्हारे पिताजी भी वही लांछन धारण करते हैं। इन दोनों में कोई अन्तर तुम्हें दिखाई पड़ता है?" "आचार्यजी के मुख पर वह लांछन दिखता है। जबकि दूसरों के चेहरों पर वह चेहरे से भी अधिक उभरता है।" __ "चेहरे से अधिक लांछन जो उभरकर दिखता है, उसी को हमें प्रदर्शन मानना चाहिए।" "क्या वह अधिक श्रद्धा को धोतित नहीं करता?" "श्रद्धा अपनी-अपनी क्रियाओं में अपने लिए रहनी चाहिए, न कि प्रदर्शन के लिए। य प्रदर्शन-निपुण लोग अब आधे १२धे अधूरे ज्ञान को ढंक रख्नने के लिए इस लांछन को एक साधन बना लेते हैं।" "क्या यह बात केवल श्रीवैष्णवों के ही लिए है?" "नहीं, सभी मतावलम्बियों के लिए है। सारे देह पर भस्म, तिलक आदि लगाना मानव की अस्प-बुद्धि का प्रतीक है। यह सब निमित्त मात्र, सांकेतिक है। इसलिए सूक्ष्म है, दिखावा अनपेक्षित है।" "यह स्थपति किस मत के अनुयायी हैं ?" "मैंने पूछा नहीं। वे तो कोई भी लांछन धारण नहीं करते।" "तो क्या नास्तिक हैं?" "नास्तिक होते तो मन्दिर की ऐसी भव्य-कल्पना उत्पन्न हो सकती थी? ऐसे परमज्ञानी भी शंकाग्रस्त होकर, अपने सम्पूर्ण जीवन को ही नष्ट करने पर तुले थे। उनका पूर्व-पुण्य। एक दिन उन पर श्री आचार्यजी की कृपादृष्टि पड़ गयी।" "तब तो उन्होंने आचार्य के शिष्यत्व को प्रहण किया होगा।" "श्रीआचार्यजी की कृपा सभी मानवों पर पड़ सकती है। वह कृपा केवल उनके शिष्यवर्ग तक ही सीमित नहीं हैं।" "इसीलिए वे किसी मत का लांछन नहीं लगाते?" "उसका कारण स्वयं संशयग्रस्त हो जाने से उत्पन्न जीवन-निरपेक्ष उदासीनता है।" "ऐसी स्थिति में तन्मयता कैसे पा सकेंगे? जीवन में उदासीनता हो तो वह 434 :: पट्टमहादेवी शान्तरमा : भाग तोर

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