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विचार करना होगा। कल प्रधानजी और पट्टमहादेवी से विचार-विनिमय करने के बाद निर्णय करेंगे।" __ "मैं स्वयं पट्टमहादेवी से निवेदन करूँ?"
"आवश्यक नहीं। हम स्वयं बता देंगे। यदि हमारी बातों पर विश्वास न हो तो स्वयं जाकर उनसे कह सकती हो।'
"एसा नहीं कि सन्निधान पर विश्वास नहीं। में मातविहीना, अनाथ हूँ। मुझे पाल-पोसकर बड़ी करनेवाले, पिताजी ही हैं। इस मातविहीना की अभिलाषा मातृहृदय पट्टमहादेवी सन्निधान से अधिक तरह समझ सकेंगी। मुझे ऐसा लगा, इसलिए मैंने पूछा।"
"हमें कोई आपत्ति नहीं।" "वर देकर अनुग्रह करनेवाले भगवान् की अब मैं क्या सेवा करूं?" "आज होली है।"
"तो प्रेम का प्रवाह हम दोनों को प्रेम सागर में विलीन करना चाहिए।" कहती हुई रानी लक्ष्मीदेवी महाराज से आलिंगन-बद्ध हो गयी। महाराज ने उस दिन उसमें एक अभूतपूर्व उत्साह देखा। सुखद उत्साह !
दूसरे दिन, मध्याह्न के भोजन के बाद, लक्ष्मीदेवी पट्टमहादेवी के पास आयी और बोली, "मैं भी साथ चलूँ? कल जिसे अधूरा देखा था, उसे आज देख सकती हैं?
"अच्छा, आ सकती हो। मूल मूर्ति को कुछ ओप देना शेष है। इसलिए स्थपतिजी को समय निकालने में कोई कष्ट विशेष न होगा।" शान्तलदेवी ने कहा।
"कब तक मैं तैयार हो जाऊँ?"
"यही एक-दो घण्टे के बाद। आज भी शिक्षण स्थगित है। इसलिए शीघ्र ही चलेंगे।"
"ठीक है, मैं शीघ्रातिशीघ्र तैयार होकर आती हूँ।'' कहकर लक्ष्मीदेवी अपने अन्तःपुर में चली गयी। एक घण्टे के अन्दर ही तैयार होकर पट्टमहादेवी के शयन कक्ष में आ उपस्थित हुई तो ज्ञात हुआ कि अन्दर महाराज हैं। उसने पूछा, "अन्दर जाना मना है?"
"ऐसा कुछ नहीं। आप यदि आएं तो सूचित करने की आज्ञा है।"
"सूचित करने का तात्पर्य ?" अभी बात खतम नहीं हुई थी कि पट खुले, चट्टला बाहर आयी और प्रणाम कर बोली, "अन्दर पधारिए।"
लक्ष्मीदेवी अन्दर गयी। चट्टला उसके पीछे, और पट बन्द हो गये।
महाराज और पट्टमहादेवी दो अलग- अलग आसनों पर बैठे थे। बीच में चौकी पर सोने के एक परात में पान रखे थे। राजदम्पती पान खा चुके थे। शान्तलदेवी के
432 :: पट्टपहादेवी शान्तला : भाग तीन